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बुधवार, 28 अगस्त 2013

भरें जीवन में कृष्ण रंग


               भरें जीवन में कृष्ण रंग…. 

                                                                                                    - कुमार विनय     



 श्री कृष्ण एक सम्पूर्ण जीवन आदर्श हैं , एक ऐसा जीवन जिसमें हजारों रंग भरे हैं।आज जन्माष्टमी के पावन दिन भरें जीवन में कृष्ण रंग। श्री कृष्ण ईश्वर हैं पर उससे भी पहले एक सफल गुणवान और दिव्य मनुष्य हैं।


कृष्ण का जन्म कारगर में हुआ।, पले -पढ़े कहीं और… कभी माँ  का आँचल नहीं मिला।  बचपन में ही राक्षसों से जूझते रहे…. मगर उन्होंने जीवन के हर पल को कितनी खूबसूरती के साथ जिया। चाहे वो बचपन के माखन चुराने वाले नन्हें से कान्हां हों , या  फिर थोड़े बड़े हुए तो कंकड़ी से मटकी  फोड़ने वाले नटखट कन्हैया , गाय  चराने वाले गोपाल , इतनी कम उम्र में ही गोबर्धन उठाने वाले गिरधर गोपाल…अपनी मधुर बंसी से मोहित कर देने वाले मोहन …. . युवावस्था में गोपियों संग प्रेम की पवित्र  रासलीलाएं रचाने वाले रासबिहारी। फिर महाभारत की कमान संभाली और अर्जुन को जीवन के रहस्य देते भगवान श्री कृष्ण… एक सफल प्रजापालक द्वारिकाधीश… गरीब सुदामा के परम मित्र कनुआ। और फिर देह त्याग… एकदम अकेले ,,,,,एक व्याध के वाण से देह त्याग दी। जाते जाते दिखा गये कि हे ! दुनिया वालो , देखो! मैं भी तुम्हारी तरह एक इंसान हूँ और एक इंसान की तरह म्रत्यु के आगोश में जा रहा हूँ। सोचिये ज़िन्दगी ऐसी खूबसूरत हो तो इसके बारे में बात करते  वक्त किसका दिल नहीं खिल उठेगा।
मगर  दुर्भाग्यपूर्ण सत्य और तथ्य यह है की हम देवी -देवताओं के नाम का जाप हरदम करते रहते है।  हम महापुरुषों की महानता को पूजने लगते हैं। लेकिन  जीवन में झांककर अपने जीवन को संवारने की कोशिश नहीं करते। उनके जीवन के पराक्रम , धैर्य परिश्रम तथा जीवन शैली से कुछ सीखते नहीं हैं। पूजा अर्चना की प्रक्रिया में हमारे सीखने की प्रवृति शून्य अवस्था में हो जाती है। और इस तरह हम उस महान जीवन का एक भी रंग अपने जीवन में नहीं उतारते।
तो आओ ! जीवन जीना हम सीख लें , वो अंदाज जिससे जिंदगी खूबसूरत हो जाती है , खुशनुमा बन जाती है।
तो आओ ! कृष्ण से कुछ खुबसूरत रंग मांग लें और करें शुरुआत जीवन जीने की। आओ करें कृष्ण जैसा निश्छल प्रेम…बचाएं किसी द्रोपदी का चीर…. करें किसी अर्जुन का मार्गदर्शन… आओ याद करें किसी बचपन के मित्र सुदामा को.……प्यार से मांगो  जरा सा माखन अपनी मैया से…. यक़ीनन कृष्ण आज जन्म लेते ही मुस्कुरा उठेंगे।.
कितना कुछ बचा है सीखने के लिए , करने और आनंद उठाने की खातिर और हम हैं की तनावों से घिरे जा रहे हैं।  आज जन्माष्टमी के पावन दिन भरें जीवन में कृष्ण रंग।

कृष्ण जन्माष्टमी पर

              ताकि मुस्कुरा उठे कन्हैया

                                                                                                                        -  कुमार विनय
आ रहा है माखन चुराने 
कंकदिया से मटकी चटकाने 
ग्वाल वाल संग गे चराने 
गोपियों संग रस रचाने 
बंसी बजाने कदम्ब की छैयां 
वो नटखट , नटवर कृष्ण कन्हैया …. 
आओ कृष्ण के जीवन से रूबरू हो लें। फिर मौका मिला न मिला , आज कुछ रंग चुरा ले ऐसे जीवन से जिसमे हजारों रंग भरे हैं। और संवार ले अपना जीवन ,, करें एक नयी शुरुआत।

जीवन क्या है - सांस दर सांस…. उम्र के दिए हर दिन को परिस्थितियों के अनुसार जीते रहना। उन परिस्थितियों के साथ जिन्हें न तो हम पसंद करते हैं और न ही बदलना चाहते। बस जैसा है वैसा जिए जा रहे हैं।  अगर गौर करें तो इन्ही परिस्थितियों के साथ समझौते में हमारा मासूम बचपन कब अपनी मासूमियत खोकर एक गंभीर युवा बन जाता है , पता ही नहीं चलता। और फिर बाकी का जीवन उसी गंभीरता को गहरे रंग देने में निकल जाता है। जब एक उम्र बीत जाती है , तब हमें उस मासूम चेहरे के पीछे एक मासूम चेहरा सिसकता हुआ नज़र आता है , जिस की मासूमियत… चंचलता… और सादगी को नज़र अंदाज़ कर मुखोटा लगाये जीते रहे । … खाना -कमाना और मर जाना - कुछ साल के जीवन का लेखा-जोखा तो हो सकता है , ऐसी ज़िन्दगी किसी मायने में मुकम्मल नहीं होती।
खैर…. ज़िन्दगी को कैसे जिए की उसकी अर्थवत्ता बनी रहे ? हमारी सूरत सीरत और सोच कैसी हो ?
तो आओ ! कृष्ण से कुछ खुबसूरत रंग मांग लें और करें शुरुआत जीवन जीने की। आओ करें कृष्ण जैसा निश्छल प्रेम…बचाएं किसी द्रोपदी का चीर…. करें किसी अर्जुन का मार्गदर्शन… आओ याद करें किसी बचपन के मित्र सुदामा को.……प्यार से मांगो  जरा सा माखन अपनी मैया से….
और खुद में रोते उस मासूम बच्चे को हंसा दो…. वो हंसेगा और देखना - उसकी खिलखिलाहट से आपकी तकलीफ दूर भाग जाएगी और  यकायक फूट पड़ेगी मासूम सी मुस्कराहट….ऐसा यक़ीनन होगा। यक़ीनन कृष्ण आज जन्म लेते ही मुस्कुरा उठेंगे।
तो नयी शुरुआत मानते हुए गुलज़ार साहब के इस खूबसूरत शेर के साथ  संकल्प लीजिये। ….
  एक रोज ज़िन्दगी से रूबरू आ बैठे 
मेरा चेहरा देखकर ज़िन्दगी ने कहा -मैं तुम्हारी जुड़वां हूँ ,
मुझसे नाराज़ न हुआ करो…

बुधवार, 21 अगस्त 2013

अटूट रिश्तों की नाज़ुक डोर, राखी......

               अटूट रिश्तों की नाज़ुक डोर 
                                                     - कुमार विनय  
          राखी की नाज़ुक डोर के अटूट  बंधन को भाई बहन के रिश्ते तक  ही सीमित नही किया जा सकता।  राखी एक भाई  की कलाई में बंधने से पहले कई कलाइयों में बांध चुकी होती है।  भारत देश के गावों में रक्षाबंधन का त्यौहार जिस परम्परा से मनाया जाता है वह परम्परा राखी के रिश्तों को  एक असीमित आयाम दे जाती है। जिस परम्परा में भाई बहन के रिश्ते से भी इतर कुछ रिश्ते हैं,
 जिनसे राखी की नाज़ुक डोर बांधकर  रक्षा की गुहार लगाईं जाती है।         
            
रक्षाबंधन के दिन पूजा के बाद सबसे पहले  पुहनिओं (रक्षाबंधन से कुछ दिन पूर्व मिटटी के कुल्हड़ों में अनाज बोया जाता है , जिसे नियमित रूप से सुबह शाम जल अर्पित किया जाता है। जो त्यौहार के दिन तक एक एक उंगल तक उग आता है ,) को राखी बाँधी जाती है और उनका पूजन किया जाता है। मान्यता है कि  सबसे  बड़ी रक्षा हमारी अन्न से होती है जो हमें जीवन प्रदान करता है।
             जब मैं छोटा था और मेरी धुंधली स्मृतियों में याद है कि  मेरी अम्मा (दादी) घर के आँगन में खड़े विशाल पीपल के पेड़ को सबसे पहले राखी बांधती थीं, और फिर मेरे मोहल्ले की सारी स्त्रियाँ उसी पीपल के पेड़ को राखी बांधते हुए गीत गाया करती थीं उन  लोकगीतों में उस वृक्ष की आराधना करते हुए रक्षा की प्रार्थना की जाती थी। वह पीपल का पेड़ प्राकृतिक रक्षक है. 
                  एक और वाकया जो मुझे हैरान कर देता था की मेरी बुआ जी उन बैलों की जोड़ी को राखी बांधती थी जो हर रोज खेतों में जोते जाते थे। उस दिन बैलों को नहला-धुला  कर भरपेट चारे के साथ ही पूजा की नन्ही नन्हीं  पुड़ियाँ खिलाई जाती  थी। और शायद इसी से प्रेरणा लेकर घर के सारे नन्हे मुन्हे बच्चे दौड़ दौड़ कर बिल्ली को पकड़कर उसके गले में राखी बांध देते थे।  हमारे घर का शेरू कुत्ता भी उस दिन रंगीन नज़र आता था। दादा का शख्त फरमान रहता की आज कोई भी इन रक्षकों से तल्खी से पेश नही आएगा, आज इनसे रक्षा का वादा लेने का दिन है।
         जब मेरे घर रक्षाबंधन के दिन दादा बैलगाड़ी लेकर आये थे, तो माँ ने राखी बांधकर ही उसका पूजन किया था और कई सालों बाद जब पापा एक नयी साईकिल लेकर आये तो उस बैलगाड़ी वाली राखी का स्थान साईकिल ने ले लिया फिर कई वर्षों तक साईकिल की घंटी में राखी बांधी जाती रही।
                त्यौहार की शाम गाँव के कुए पर पूरे गाँव की स्त्रियाँ गीत गाती हुई इकठ्ठा होती थीं। रंगीन साड़ियों और सोलह श्रंगारों से सुसज्जित स्त्रियाँ हंसती खिलखिलाती कुए को राखी बांधती हैं। कुए को राखी बंधने का तरीका भी  दिलचस्प नहीं है। एक पीली मिटटी का ढेला लेकर उसे कुए के पानी से भिगोकर उस पर राखी बांध दी जाती है और उस कुए का किनारा पीली मिटटी के रंगीन ढेलों से भर जाता है, फिर सारी महिलाएं दादी जी के नेतृत्व में कुए के चरों ओर भैथ्कर घंटों मंगल गान करती हैं। वे अपने गीतों में प्रार्थना करती हैं कि "हे कूप! तुमने भोर में सूरज की चितवन से पहले ही हमारे  घड़ों  को अपने शीतल जल से भरा है, जिससे दिनभर हमे जीवन मिलता है और फिर अगली भोर हम तेरे किनारे आकर मटकियों की आहट  से तुझे जगा देती हैं। तुम हमें ऐसे ही जीवन देते रहना। "

रविवार, 18 अगस्त 2013

नज्मों के गुलज़ार


                नज्मों के गुलज़ार

                                                                                  -  कुमार विनय  

                                          

 "मैं नज़्म रचता हूँ। उसके बाद उन नज्मों को सामने बिठाकर उनसे बातें करता हूँ।
 फिर कहता हूँ कि मैंने बनाई  हैं ये नज्में ….
 तब सारी नज्में खिलखिलाकर मुझसे कहती हैं,- अरे! भले मानस हमने तुझे रचा है, हमने तुम्हे कवि-शायर बनाया है। मैनें शायरी नहीं रची, नज्मों ने मुझे रचा है… " - गुलज़ार
यही खूबी है उस शख्सियत की, कि  इतनी ऊँचाइयों पर पहुँचने के बाद भी वही सहजता, कोई मुखोटा नहीं। अनगिनत नज्मों, कविताओं, कहानियों, और ग़ज़लों की सम्रद्ध दुनिया अपने में समोए गुलज़ार अपना सूफियाना रंग लिए लोगों की साँसों में बसते हैं। आज गुलज़ार साहब का 77 वां जन्मदिन है। जन्मदिन के बहाने आकाश की तस्वीर को एक छोटे से केनवास पर उतारने का मेरा बचपना प्रयास। एक समंदर सी अथाह गहरी ज़िन्दगी की कुछ बूंदे जो मुझ पर लहरों के साथ सौभाग्य से पड़ गयीं ,उन्हीं चंद एहसासों को शब्द देने की कोशिश की है। गुलज़ार साहब को मैंने पहली बार जब उनके कहानी संकलन 'रवीपार" में पढ़ा तो एक अजीब सी  धुन लग  गयी। और फिर नज्मे, ग़ज़लें, कवितायेँ ,फिल्मों की पटकथा ,जो भी जहाँ से संभव हो सका बहुत ह्रदय से पढ़ा।  
                  गुलज़ार का पूरा नाम सम्पूर्ण  सिंह कालरा है। गुलज़ार का जन्म अविभाजित भारत के झेलम  जिला के दीना गाँव में, जो अब पाकिस्तान  में है, १८ अगस्त १९३६ को हुआ था। गुलज़ार अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान हैं। उनकी माँ उन्हें बचपन मे ही छोङ कर चल बसीं। माँ के आँचल की छाँव और पिता का दुलार भी नहीं मिला।  वह नौ भाई-बहन में चौथे नंबर पर थे। बंट्वारे के बाद उनका परिवार अमृतसर  आकर बस गया, वहीं गुलज़ार साहब मुंबई चले गये।
       अपने संघर्ष के दिनों में एक मोटर गैराज में काम करने से लेकर हिंदी सिनेमा के दिग्गज निर्देशकों के साथ काम करने तक के सफ़र में गुलज़ार  साहब ने ज़िन्दगी  करीब से देखा है,,,,
  "अपने ही साँसों का कैदी
रेशम का यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगा""
जैसे जैसे हम इन नज्मों की परतों को एक एक कर अलग अलग करते हैं वैसे वैसे इस शायर का जीवन के गहनतम स्टार तक पहुंचा हुआ ऐसा अवसादी मन जज़्बात के साथ खिलाता है। ….
 एक अकेला इस शहर में……
जीने की वजह तो कोई नही
मरने का बहाना ढूंढता  है….
एक और खास चीज है, जो इस शायर की कविता का पर्याय बन गयी है। ये गुलज़ार ही है, जिनकी कविताओं में प्रकृति कितनी खूबसूरती से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है.गुलज़ार की कविताओं में प्राकृतिक प्रतीकों की भरमार रही है चाहे वह चाँद की उपस्थिति रही हो या फिर सूरज तारे बारिश पतझड़ दिन रात शाम नदी बर्फ समुद्र धुंध हवा कुछ भी हो सकती है जो अपनी खूबसूरती गुलज़ार की कविताओं में बिखेरते हैं।

बेसबब मुस्कुरा रहा है चाँद,
कोई साजिश छुपा रहा है चाँद … "
            "फूलों की तरह लैब खोल कभी
               खुशबू की जबान में बोल कभी "
 
                                "हवा के सींग न पकड़ो, खदेड़ देती हैं
                               जमीन से पेड़ों के टाँके उधेड़ देती हैं …"
और भी ढेरों खूबसूरत नज्में आपके दिल को गुनागुनायेंगी।
      
 गुलज़ार साहब राखी के साथ प्रेम बंधनों में बंधे,और एक पति और पिता के रिश्तों में घुल गए। लेकिन ये रिश्ता ज्यादा दिनों तक चल नही सका और आपसी मतभेद के बाद दोनों अलग अलग रहते है मगर अभी तलाक़ नहीं हुआ है। बचपन में माँ के गुजर जाने के बाद जीवनसाथी  के विरह तक गलज़ार ने  रिश्तों की मार्मिकता देखी  है और इसीलिए उन्होंने अपनी  नज्मों में रिश्तों की मासूमियत को अद्भुत तरीके से व्यक्त किया है
"हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख से लम्हे नहीं जोड़ा करते। " 
                या फिर ….
"मुझको भी तरकीब सिखा कोई, यार जुलाहे……
मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें साफ़ नज़र आती हैं, मेरे यार जुलाहे"
और आख़िरकार वे कहते हैं। 
        "आओ ! सारे पहन लें आईने 
सारे देखेंगे अपने ही चेहरे……
प्रेम में उस अनसुनी आवाज़ को, जो बोलना नहीं जानती गुलज़ार बखूबी सुन पाए हैं। "सांस में तेरी सांस मिली तो मुझे सांस आयी….
जीवन की वास्तविकताओं से गुजरते हुए  संघर्ष के क्षण गुलज़ार की कविताओं में ज़िन्दगी की रूमानियत के साथ म्रत्यु जैसे शांत पद में भी संवेदनाएं भर गए हैं।
  क्या पता कब, खान मारेगी
बस, की मैं ज़िन्दगी से डरता हूँ
मौत का क्या है, एक बार मारेगी।  
गुलज़ार हमेशा समय के साथ लिखते रहे हैं। …वे कहते हैं
"चाँद जितनी शक्लें  बदलेगा, मैं भी उतना ही बदल बदल कर लिखता रहूँगा। ……. "