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रविवार, 15 जून 2014

पापा

उंगली पकड कर चलना सिखाया
बाहों में लेकर झूला झुलाया
अपने हाथों से निवाला खिलाया
अक्षरों से पहली मुलाकात करवाई
कांधे पे बिठा के दुनियां दिखाई
दुनिया की मेरी हर पसंद दिलाई

छोटी छोटी गलतियों पर डांटा
ताकि कोई पराया न डांट सके
मैं नाराज हुआ तो कभी नहीं मनाया
ताकि मैं कहीं रूठना न सीख जाऊँ
मेरी छोटी-मोटी उपलब्धियों पर कभी प्रसंशा नहीं की
ताकि मुझे कहीं गुरूर न हो जाए

पापा,
एक आप ही तो हैं,
जिनसे मांगते वक्त मैं कभी ये नहीं सोचता कि
ये चीज मुझे मांगनी चाहिए थी या नहीं..