गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

तेरे हिस्से का वक़्त...


"जिसने वक़्त को नही समझा वो हमेशा हारा है " ये पंक्ति किसी महानुभाव ने किसी ज़माने में लिखी होगी , मगर इसका सिक्का ऐसा जमा कि हर कोई भयभीत रहने लगा। और सबने वक़्त को कैद करना चाहा।  लेकिन जब बुद्धिमानों की समझ में ये आया कि "वक़्त कभी किसी के लिए नहीं रुकता।" तो फिर हार मानने की  बजाय वक़्त को बाँट दिया।  पहले सालों में , महीनों में , हफ़्तों में ,दिनों में ,घंटों में ,मिनटों में  फिर सेकण्डों में और अब तो सेकण्ड के भी हजारों हिस्से कर दिए गये हैं। मगर फिर भी वक़्त है कि  हाथ ही नहीं आता.

यूँ तो ये वक़्त दिनभर सरपट दौड़ता रहता है, सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिलती। मगर जैसे ही शाम होती है , तो सूरज के साथ वक़्त भी ढलने लगता है और रात होते होते ठहर सा जाता है। लगता है जैसे इसके साथ ही मेरी साँसे भी ठहर जाएंगी। मैं हर शाम से देर रात तक तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ , जब तक कि तुम सो नहीं जाते (मुझे पता है, तुम कब सोते हो ). मगर तुम नहीं आते लेकिन हाँ तुम्हारे हिस्से का वक़्त जरूर चला आता है,,,,एक घने कोहरे की  चादर ओढ़े।  और फिर वही दिनभर सरपट दौड़ने वाला वक़्त इत्मिनान से सुस्ताता  है , लगता है जैसे घड़ी की सुइयाँ बर्फ़ सी जम गईं हैं और उन्हें अलाव की  जरूरत है। 
 आजकल दिन छोटे और रातें बहुत लम्बी होने लगीं हैं। 


तू मेरी ज़िंदगी में शामिल नहीं है लेकिन …
तेरे हिस्से का वक़्त आज भी तन्हा गुजरता है।