सोमवार, 7 दिसंबर 2015

शोर के सन्नाटे में

एकतरफ जहाँ देश की राजधानी, हवा में घुल रहे जहर से जूझ रही है, वहीँ बढते शोर ने लोगों के कान खड़े कर दिए हैं. गाड़ियों के होर्न, मशीनों की खटर-पटर और लाउडस्पीकरों का शोर लोगों को बहरा बना रहा है. इसका सबसे ज्यादा असर बेक़सूर यातायात पुलिसकर्मियों पर पड रहा है, जो चौराहों पर खड़े गाड़ियों के शोर मे घंटों ड्यूटी करते रहते हैं, जिससे उनकी सुनने की क्षमता घटती जा रही है. हाल ही मे छपी एक रिपोर्ट के अनुसार दस मे से चार यातायात पुलिसकर्मी ऊँचा सुनते हैं.


शोर से भनभनाते शहरों मे पक्षियों ने भी अपने बसेरे छोड़ दिए हैं. गौरैया जैसे पक्षी तो नज़र भी नहीं आते, कबूतर किसी रेलवे स्टेशन की टिनशेड मे डरे-सहमे छुपते-छुपते घटते जा रहे हैं. मगर इस भागदौड में ध्यान कौन देता है. कहीं न कहीं हम आदी होते जा रहे हैं. लेकिन ध्यान रखना कि हम यूँ ही बेतहाशा दौड मे अगर इस खतरे को अभी नहीं सुन पाए तो एक दिन ये शोर हमें सुनने के काबिल नहीं छोडेगा. 

यह लेख बिजनेस स्टेंडर्ड में प्रकाशित हो चुका है.

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

सोशल मीडिया पर मदद

चैन्नई भारी बाढ़ की चपेट में है, वहाँ का जनजीवन अस्त-व्यस्त है. लोग घरों से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं जिससे उनकी रोजमर्रा की जरूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं. लेकिन इस दौरान सोशल मीडिया की उभरी सकारात्मक भूमिका से बेहतर भविष्य की उम्मीद की जा सकती है. जिस तरह से लोगों ने सोशल मीडिया पर मदद के लिए अभियान चलाया, उससे मानवता की एक और मिशाल देखी जा सकती है. अक्सर आभासी दुनियाँ के लोगों पर समाज से अलग होते जाने का आरोप लगता रहता है. मगर जिस तरह से इस घटना पर लोगों ने तत्परता दिखाई और मदद के लिए सामान सहित खाना, टेक्सी/नाव और इमरजेंसी के दौरान किसी भी मदद के लिए मोबाइल नंबर तक जारी कर दिए, उससे इस पीढ़ी की संवेदनशीलता पर उम्मीदें की जा सकती हैं. ट्विटर पर चैन्नई से बाहर रह रहे लोगों ने वहाँ रह रहे अपने परिजनों के लिए लोगों से संभव मदद गुहार लगाई. कई कंपनियों ने भी फ्री मोबाइल रीचार्ज, फ्री नाव सेवा और मुफ्त भोजन सहित जरुरत की चीजों की फ्री होम डिलीवरी शुरू कर दी है. यही देश की पहचान है, जब अपनों पर मुसीबत हो तो हरसंभव मदद दी जाये. फिर वो चाहे सामाजिक हो या सोशल मीडिया से.



यह लेख जनसत्ता में प्रकाशित हो चुका है.

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

चल पड़े हों ये कदम..

चल पड़े हों जिस तरफ भी,
ये कदम फिर ना डिगें.

फासला कितना भी हो,
मंजिल से पहले ना रुकें..
हौसला दिल में हो इतना,
मुश्किलों से ना डरें..
ठोकरें खाकर उठें फिर,
मन में निराशा ना भरें...
मंजिलें तकती हैं राहें,
चल चला साथिया...!

रविवार, 8 नवंबर 2015

दूसरों से मांगने से पहले

दूसरों से मांगने से पहले
जितने मेरे खुद के हक है
उन्हें खुद से लड़कर पाना है
अपने नाम के सारे ख़िताब
अर्जित करूँगा मै ........
अपने अस्तित्व की पहचान में
चमकते सितारों में
भरनी है रौशनी हर पल ...
किसी और से उम्मीदें पालने से पहले
चुकता कर लूं खुद से हिसाब .........!

बुधवार, 2 सितंबर 2015

भूख और माँ का गहरा रिश्ता

जब भी भूख लगती है तो माँ याद आ जाती है 
सिर्फ इसलिए नहीं कि पेट भर देती थी..
       बल्कि कई बार इसलिए कि 
        जब खाना नहीं होता था घर में 
        तो ऐसे बहला देती थी 
        जैसे भूख सोख ली हो पेट से 
और भूख और माँ एक हो गए हों..

कभी कभी बिना गलतियों के ही चिडचिडा उठती थी, डंडा लेकर 
ताकि मैं भाग जाऊं रूठ कर दिनभर के लिए 
और खेलता रहूँ उन गलियों में 
जहाँ भूख का जाना प्रतिबंधित था.

लेकिन कभी उसने मुझे रसोई की तरफ झाँकने भी नहीं दिया..

आजकल जब लौटता हूँ भूख से तैश होकर 
और कमरे की रसोई टटोलकर कुछ नही पाता हूँ
तो, पेट में आग लग जाती है..
 तब फिर माँ याद आती है कि कितनी बड़ी मनोवैज्ञानिक थी 
जानती थी कि 
               खाली बर्तन देखकर भूख असहनीय हो जाती है..

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

खुद को रचकर

खुद को रचकर दुनियां को कुछ अपने ढंग से रंगते हैं..
कहीं मटमैली - कहीं रंगोली सी एक इबारत लिखते हैं..
कुछ तो रोशन होंगी रातें, चल आसमान में चमकते हैं..
कुछ तो तककर राहत लेंगे, चल तारों संग टंगते हैं.
अपना क्या है कुछ भी चुन लें,
चल सपनों की वादी चुनते हैं

आवारा हैं कोई धुन लें,
चल बेताबी बुनते हैं..
नज़रों से कुछ दूर तो क्या,
हम सपने बनकर जागते हैं.
हम हैं राही प्यार में कुरबां,
चल कुछ लम्बी दूरी चलते हैं..

मंगलवार, 3 मार्च 2015

घर से दूर होली

आज होली का त्यौहार है, और मैं पिछले कई बार की तरह इस बार भी घर नही जा पाया। त्योहारों पर घर ना जाने का सिलसिला पिछले कुछ दिनों से निरंतर बना है, और ये सिलसिला न जाने कब आदत बन गया पता ही नही चला।  हर बार की तरह इस बार भी कोई खास कारन नहीं है न जाने का।  बल्कि मैं  खुद ही कोई न कोई अच्छा सा बहाना बना लेता हूँ. और एकाध पूछने वालों को वही पकड़ा देता हूँ. वैसे भी पूछने वालों की संख्या ज्यादा नहीं है.
            ज़िंदगी ने इस शहर में एक अरसा भी नहीं काटा, मगर न जाने कब ये शहर मेरे भीतर उतर गया. यहाँ की खुश्बू की पकड़  मुझे छोड़ती ही नहीं। जब भी गया हूँ इस शहर से सुकून से नहीं जा पाया हूँ. एक अजीब सी टीस हमेशा बसी रही है .
 हर बार इलाहबाद रेलवे स्टेशन छोड़ते वक़्त लगता है जैसे मैं अपना वजूद यहीं छोड़कर  रहा हूँ. और घर पहुँचते पहुँचते एक नया वजूद ओढ़ लेता हूँ. फिर वहाँ से मां के लाख मना करने के बाबजूद उस रूह को वहीं उतारकर चल देता हूँ.
इस बीच सफर में मैं किसी जगह के वजूद में  नहीं रहता.., एकदम कोरा सा बैठा रहता हूँ.

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

ट्रेन के जनरल संदूक में..

ट्रेन में सफ़र मेरे लिए हमेशा एक संघर्ष की तरह रहा है. एक ऐसा संघर्ष जो बिना किसी मुकम्मल मंजिल के एक्स्ट्रा सा लगता है. ये वो संघर्ष है जो मेरे सफ़र में जानबूझकर भर दिया जाता है. जिस मंजिल पर पहुँचने के लिए आरंभिक लाइन तक पहुँचने के लिए सबको बाइज्ज़त एक सीट मिलती है, मुझे न जाने क्यूँ अपना संघर्ष यहीं से शुरू करना पड़ता है. यहीं से मेरे साथ भेदभाव की राजनीति शुरू हो जाती है.
ट्रेन के जनरल डिब्बे से मुझे एतराज नहीं है. मगर वहाँ लोगों की घुटन कचोटती है, हमेशा जितने लोग जनरल बोगी में भरे रहते हैं बमुश्किल उतने ही बाकी डिब्बों में आरम् से लेटे होते हैं. मुझे उनके आराम से सोने से समस्या नहीं है. समस्या है इस दोहरे बर्ताब से कि आधी आबादी को पैर रखने को जगह नहीं नसीब. घंटों लटके जाना पड़ता है.
रेल बजट पेश होने वाला है. अक्सर चार जनरल डिब्बों में भरी भीड़ के बराबर लोग बाकी के बीस डिब्बों में सफर कर रहे होते हैं. ये औसत हैरान करता है और सवाल भी उठाता है कि क्या समानता की बड़ी-बडी बातें सिर्फ किसी प्रस्तावना में लिखे आदर्श वाक्य बनकर रह गयीं हैं. 
अपनी जान जोखिम में डालकर पायदानों पर लटके मजबूर लोगों को भी आशा है कि उन्हें कम से कम भीतर खड़े रहने की जगह तो मिल ही जायेगी. यू.पी-बिहार से बड़े शहरों को चलने वाली रेलगाड़ियों के स्लीपर के फर्श पर बैठे और जनरल बोगियों के शौचालयों में भरे मासूमों को इतनी उम्मीद तो होगी ही कि रेलमंत्री के सूटकेस में उनके घुटन और बदबू से बचाने की एकाध योजना तो होगी. मुंबई, अहमदाबाद और दिल्ली से आने-जाने वाली रेलगाड़ियों में जनरल बोगियां बढाई जाएँ या फिर गाड़ियों की संख्या में वृद्धि हो.