रविवार, 15 फ़रवरी 2015

ट्रेन के जनरल संदूक में..

ट्रेन में सफ़र मेरे लिए हमेशा एक संघर्ष की तरह रहा है. एक ऐसा संघर्ष जो बिना किसी मुकम्मल मंजिल के एक्स्ट्रा सा लगता है. ये वो संघर्ष है जो मेरे सफ़र में जानबूझकर भर दिया जाता है. जिस मंजिल पर पहुँचने के लिए आरंभिक लाइन तक पहुँचने के लिए सबको बाइज्ज़त एक सीट मिलती है, मुझे न जाने क्यूँ अपना संघर्ष यहीं से शुरू करना पड़ता है. यहीं से मेरे साथ भेदभाव की राजनीति शुरू हो जाती है.
ट्रेन के जनरल डिब्बे से मुझे एतराज नहीं है. मगर वहाँ लोगों की घुटन कचोटती है, हमेशा जितने लोग जनरल बोगी में भरे रहते हैं बमुश्किल उतने ही बाकी डिब्बों में आरम् से लेटे होते हैं. मुझे उनके आराम से सोने से समस्या नहीं है. समस्या है इस दोहरे बर्ताब से कि आधी आबादी को पैर रखने को जगह नहीं नसीब. घंटों लटके जाना पड़ता है.
रेल बजट पेश होने वाला है. अक्सर चार जनरल डिब्बों में भरी भीड़ के बराबर लोग बाकी के बीस डिब्बों में सफर कर रहे होते हैं. ये औसत हैरान करता है और सवाल भी उठाता है कि क्या समानता की बड़ी-बडी बातें सिर्फ किसी प्रस्तावना में लिखे आदर्श वाक्य बनकर रह गयीं हैं. 
अपनी जान जोखिम में डालकर पायदानों पर लटके मजबूर लोगों को भी आशा है कि उन्हें कम से कम भीतर खड़े रहने की जगह तो मिल ही जायेगी. यू.पी-बिहार से बड़े शहरों को चलने वाली रेलगाड़ियों के स्लीपर के फर्श पर बैठे और जनरल बोगियों के शौचालयों में भरे मासूमों को इतनी उम्मीद तो होगी ही कि रेलमंत्री के सूटकेस में उनके घुटन और बदबू से बचाने की एकाध योजना तो होगी. मुंबई, अहमदाबाद और दिल्ली से आने-जाने वाली रेलगाड़ियों में जनरल बोगियां बढाई जाएँ या फिर गाड़ियों की संख्या में वृद्धि हो.