गुरुवार, 2 जून 2016

शोषण से स्टंट तक का सफर

गीता बॉलीवुड की सफल स्टंट वुमेन है. कई फिल्मों में बॉलीवुड की दिग्गज अभिनेत्रियों के डबिंग किरदार भी निभाए हैं, जिनमे करीना कपूर, बिपासा बासु और दीपिका पादुकोण भी शामिल हैं. गीता दो बच्चों की बहादुर माँ है. टीवी के कई जोखिम भरे रियलिटी शोज में काम कर चुकी हैं. लेकिन इस सफल गीता की कहानी इतनी आसान नहीं रही है. 
पंद्रह साल की उम्र में ब्याही गई गीता को ससुराल में सबने प्रताड़ित किया। गीता ने सोचा बच्चे हो जायेंगे तो शायद बात बन जाए, लेकिन पति का अत्याचार बढ़ता गया. पति घंटों बाल नोंचता था, कई बार दीवारों में सर मारा। गीता को समझ ही नहीं आ रहा था कि  वे लोग चाहते क्या हैं. 
गीता के साथ ही नहीं ये हमारे समाज की दर्दनाक सच्चाई है, बहु को नौकरानी से भी बदतर समझा जाता है और वो कभी आवाज़ भी न उठा पाए इसलिए हमेशा प्रताड़ित किया जाता है. पितृसत्तात्मक समाज में पति अपनी औकात इसी में समझता है कि उसकी पत्नी उसकी मार कितनी चुप्पी से सहती रहती है. वो नशा करें, बेहूदापन करे सब जायज है, पत्नी को सिर्फ झेलना है. घर में बने रहने की यही एकमात्र शर्त होती है.
गीता ने सबकुछ झेला और एक दिन जब हद हो गई तो वो निकल पडी। कहाँ जाएंगी? क्या करेगी? उसे खुद भी नहीं पता था और ना ही उसने उस वक़्त सोचने की जहमत उठाई। वो बस उस दर्द से भाग जाना चाहती थी. 
गीता के ससुराल वालों ने उसे पनाह देने वाले उसके बड़े बहनोई को भी नहीं छोड़ा और उन्हें परेशान करने लगे. ससुराल वालों की योजना थी कि जब कहीं कुछ नहीं मिलेगा तो खुद ही मजबूर होकर घर आएगी, लेकिन गीता ये ठान कर निकली थी कि मर जाएगी लेकिन अब नहीं लौटेगी।
गीता ने टूटे-फूटे घरों में गुजारा कर मेहनत मजदूरी की, गुरूद्वारे के लंगर से बच्चों का पेट भरा,दूसरे के घरों में रोटियां बनाईं,..गीता को ज़िन्दगी किन-किन रास्तों पर नहीं ले गई. उसे सबकुछ करने को मजबूर कर दिया गया. लेकिन गीता एक बात की हमेशा गाँठ बांधे रही की कभी अपना जमीर नहीं बेचेगी।
और एक दिन उसके जज्बे को सटीक रास्ता मिल गया. ज़िन्दगी जुनूनी लोगों की परीक्षा बहुत लेती है लेकिन जब बदले में देती है तो यकीनन छप्पर फाड़ के देती भी है.
सुनिए गीता की कहानी। उसी की जुबानी,... जो आपको रुलाएगी लेकिन झोली भर हिम्मत भी दे जाएगी,.... 


बुधवार, 25 मई 2016

आख़री सफ़र

(अमरीकन लेखक केंट नेर्बर्न ने आध्यात्मिक विषयों और नेटिव अमरीकन थीम पर कई पुस्तकें लिखीं हैं. नीचे दिया गया प्रसंग उनकी एक पुस्तक से लिया गया है)

बीस साल पहले मैं आजीविका के लिए टैक्सी चलाने का काम करता था. घुमंतू जीवन था, सर पर हुक्म चलानेवाला कोई बॉस भी नहीं था.
इस पेशे से जुडी जो बात मुझे बहुत बाद में समझ आई वह यह है कि जाने-अनजाने मैं चर्च के पादरी की भूमिका में भी आ जाता था. मैं रात में टैक्सी चलाता था इसलिए मेरी टैक्सी कन्फेशन रूम बन जाती थी. अनजान सवारियां टैक्सी में पीछे बैठतीं और मुझे अपनी ज़िंदगी का हाल बयान करने लगतीं. मुझे बहुत से लोग मिले जिन्होंने मुझे आश्चर्यचकित किया, बेहतर होने का अहसास दिलाया, मुझे हंसाया, कभी रुलाया भी.
इन सारे वाकयों में से मुझे जिसने सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह मैं आपको बताता हूँ. एक बार मुझे देर रात शहर के एक शांत और संभ्रांत इलाके से एक महिला का फोन आया. हमेशा की तरह मुझे लगा कि मुझे किन्हीं पार्टीबाज, झगड़ालू पति-पत्नी-प्रेमिका, या रात की शिफ्ट में काम करनेवाले कर्मचारी को लिवाने जाना है.
रात के ढाई बजे मैं एक छोटी बिल्डिंग के सामने पहुंचा जिसके सिर्फ ग्राउंड फ्लोर के एक कमरे की बत्ती जल रही थी. ऐसे समय पर ज्यादातर टैक्सी ड्राईवर दो-तीन बार हॉर्न बजाकर कुछ मिनट इंतज़ार करते हैं, फिर लौट जाते हैं. लेकिन मैंने बहुत से ज़रूरतमंद देखे थे जो रात के इस पहर में टैक्सी पर ही निर्भर रहते हैं इसलिए मैं रुका रहा.
यदि कोई खतरे की बात न हो तो मैं यात्री के दरवाजे पर पहुँच जाता हूँ. शायद यात्री को मेरी मदद चाहिए, मैंने सोचा.
मैंने दरवाजे को खटखटाकर आहट की. “बस एक मिनट” – भीतर से किसी कमज़ोर वृद्ध की आवाज़ आई. कमरे से किसी चीज़ को खसकाने की आवाज़ आ रही थी.
लम्बी ख़ामोशी के बाद दरवाज़ा खुला. लगभग अस्सी साल की एक छोटी सी वृद्धा मेरे सामने खड़ी थी. उसने चालीस के दशक से मिलती-जुलती पोशाक पहनी हुई थी. उसके पैरों के पास एक छोटा सूटकेस रखा था.
घर को देखकर यह लग रहा था जैसे वहां सालों से कोई नहीं रहा है. फर्नीचर को चादरों से ढांका हुआ था. दीवार पर कोई घड़ी नहीं थी, कोई सजावटी सामान या बर्तन आदि भी नहीं थे. एक कोने में रखे हुए खोखे में पुराने फोटो और कांच का सामान रखा हुआ था.
“क्या तुम मेरा बैग कार में रख दोगे?” – वृद्धा ने कहा.
सूटकेस कार में रखने के बाद मैं वृद्धा की सहायता के लिए पहुंचा. मेरी बांह थामकर वह धीमे-धीमे कार तक गयी. उसने मुझे मदद के लिए धन्यवाद दिया.
“कोई बात नहीं” – मैंने कहा – “मैंने आपकी सहायता उसी तरह की जैसे मैं अपनी माँ की मदद करता.”
“तुम बहुत अच्छे आदमी हो” – उसने कहा और टैक्सी में मुझे एक पता देकर कहा – “क्या तुम डाउनटाउन की तरफ से चल सकते हो?”
“लेकिन वह तो लम्बा रास्ता है? – मैंने फ़ौरन कहा.
“मुझे कोई जल्दी नहीं है” – वृद्धा ने कहा – “मैं होस्पिस जा रही हूँ”.
(होस्पिस में मरणासन्न बूढ़े और रोगी व्यक्ति अपने अंतिम दिन काटते हैं.)
मैंने रियर-व्यू-मिरर में देखा. उसकी गीली आंखें चमक रहीं थीं.
“मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है” – उसने कहा – “डॉक्टर कहते हैं कि मेरा समय निकट है”.
मैंने मीटर बंद करके कहा – “आप जिस रास्ते से जाना चाहें मुझे बताते जाइए”.
अगले दो घंटे तक हम शहर की भूलभुलैया से गुज़रते रहे. उसने मुझे वह बिल्डिंग दिखाई जहाँ वह बहुत पहले लिफ्ट ऑपरेटर का काम करती थी. हम उस मोहल्ले से गुज़रे जहाँ वह अपने पति के साथ नव-ब्याहता बनकर आई थी. मुझे एक फर्नीचर शोरूम दिखाकर बताया कि दसियों साल पहले वहां एक बालरूम था जहाँ वह डांस करने जाती थी. कभी-कभी वह मुझे किसी ख़ास बिल्डिंग के सामने गाड़ी रोकने को कहती और अपनी नम आँखों से चुपचाप उस बिल्डिंग को निहारते रहती.
सुबह की लाली आसमान में छाने लगी. उसने अचानक कहा – “बस, अब और नहीं. मैं थक गयी हूँ. सीधे पते तक चलो”.
हम दोनों खामोश बैठे हुए उस पते तक चलते रहे जो उसने मुझे दिया था. यह पुराने टाइप की बिल्डिंग थी जिसमें ड्राइव-वे पोर्टिको तक जाता था. कार के वहां पहुँचते ही दो अर्दली आ गए. वे शायद हमारी प्रतीक्षा  कर रहे थे. मैंने ट्रंक खोलकर सूटकेस निकाला और उन्हें दे दिया. महिला तब तक व्हीलचेयर में बैठ चुकी थी.
“कितने रुपये हुए” – वृद्धा ने पर्स खोलते हुए पूछा.
“कुछ नहीं” – मैंने कहा.
“तुम्हारा कुछ तो बनता है” – वह बोली.
“सवारियां मिलती रहती हैं” – मैं बोला.
अनायास ही पता नहीं क्या हुआ और मैंने आगे बढ़कर वृद्धा को गले से लगा लिया. उन्होंने मुझे हौले से थाम लिया.
“तुमने एक अनजान वृद्धा को बिन मांगे ही थोड़ी सी ख़ुशी दे दी” – उसने कहा – “धन्यवाद”.
मैंने उनसे हाथ मिलाया और सुबह की मद्धम रोशनी में बाहर आ गया. मेरे पीछे एक दरवाज़ा बंद हुआ और उसके साथ ही एक ज़िंदगी भी ख़ामोशी में गुम हो गयी.
उस दिन मैंने कोई और सवारी नहीं ली. विचारों में खोया हुआ मैं निरुद्देश्य-सा फिरता रहा. मैं दिन भर चुप रहा और सोचता रहा कि मेरी जगह यदि कोई बेसब्र या झुंझलाने वाला ड्राईवर होता तो क्या होता? क्या होता अगर मैं बाहर से ही लौट जाता और उसके दरवाज़े तक नहीं जाता?
आज मैं उस घटनाक्रम पर निगाह डालता हूँ तो मुझे लगता है कि मैंने अपनी ज़िंदगी में उससे ज्यादा ज़रूरी और महत्वपूर्ण कोई दूसरा काम नहीं किया है.
हम लोगों में से अधिकांश जन यह सोचते हैं कि हमारी ज़िंदगी बहुत बड़ी-बड़ी बातों से चलती है. लेकिन ऐसे बहुत से छोटे दिखनेवाले असाधारण लम्हे भी हैं जो हमें खूबसूरती और ख़ामोशी से अपने आगोश में ले लेते हैं.

शुक्रवार, 6 मई 2016

सात साल की बच्ची ने बदल दी हैंड राइटिंग की परिभाषा

'बिना हाथों के बनी हैंड राइटिंग चैम्पियन'



अक्सर कहा जाता है कि किस्मत हाथों में लिखी नहीं होती, बल्कि हाथों से लिखी जाती है.

लेकिन उसने तो बिना हाथों के ही किस्मत लिख ली है. महज सात साल की इस बच्ची ने हैंड राइटिंग की परिभाषा बदल दी है. शब्द निर्माताओं को इस शब्द से हैंड हटाकर सिर्फ़ राइटिंग करने के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया है. हैंड राइटिंग के लिए अब हाथ हों न हों जुनून होना चाहिए.











































अमेरिका के वर्जीनिया की अनाया एलिक महज सात साल की हैं और अभी पहली कक्षा में पढ़ती हैं. अनाया के जन्म से ही हाथ नहीं हैं. लेकिन अनाया ने प्रकृति के इस अवरोध को भी धता बताकर हैंड राइटिंग में ही शीर्ष स्थान हासिल किया हैअनाया नेशनल हैंड राइटिंग प्रतियोगिता में चैम्पियन बनी है. इस प्रतियोगिता में अनाया ने पचास बच्चों में प्रथम स्थान प्राप्त किया.



अनाया एलिक के जन्म से ही हाथ नहीं हैं. अनाया लिखने के लिए अपने दोनों बांहों के बीच में पेन्सिल को दबाकर डेस्क पर खड़ी हो जाती है ताकि लिखने के लिए सही एंगिल बन सके.

अनाया वर्जीनिया के ग्रीनब्रायर क्रिश्चियन एकेडमी में पहली कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा है. इस बच्ची ने राष्ट्रीय हैंडराइटिंग प्रतियोगिता जीतकर सामान्य बच्चों को भी बड़ी सीख दी है. स्कूल में अक्सर बच्चों को हैंड राइटिंग को लेकर डाट पडती रहती है, उन्हें हाथ पकड़ पकड़ कर अच्छे और स्पष्ट शब्दों में लिखना सिखाया जाता है, लेकिन सात साल की अनाया ने बिना हाथों के इस प्रतियोगिता में भाग लिया और फतह हासिल की. अनाया की हैंड राइटिंग को देखकर ही स्कूल की प्रिंसिपल ने उन्हें प्रतियोगिता में शामिल कराने का निर्णय लिया था.

उसकी प्रिंसिपल ट्रेसी कॉक्स कहती हैं कि "अनाया बहुत मेहनती बच्ची है और अपनी क्लास में सबसे अच्छी हैंड राइटिंग के लिए उसने कड़ी मेहनत की है. अनाया हमारे स्कूल में सबके लिए प्रेरणा स्रोत है.”
अनाया की मां बताती हैं कि "वो बिना हाथों के न सिर्फ़ लिख सकती है बल्कि खुद तैयार हो सकती है और जूते के फीते से लेकर बाल भी बांध सकती है. उसे हाथों से होने वाले इन सब कामों के लिए किसी और की सहायता की जरूरत नहीं पडती.”
अमेरिका के ओहियो राज्य में होने वाली इस प्रतियोगिता को एक शैक्षिक-बिजनेस कंपनी 'जेनर ब्लोजर' पिछले पच्चीस सालों से करा रही है. जिसके माध्यम से स्पष्ट हैंड राइटिंग को प्रोत्साहन मिलता है. इस अवार्ड के अंतर्गत अनाया को एक हज़ार डॉलर और ट्रॉफी प्रदान की गयी.





मुश्किल हालातों के बारे में शिकायत करना आसान है लेकिन आप इस छोटी बच्ची को देखिए जिसके पास बहाना नहीं कठिन परिश्रम है. प्रिंसिपल कॉक्स कहती हैं कि "जीवन कठिन है और हम कई बार असंभव चुनौतियाँ का सामना करते हैं. लेकिन अगर आप वास्तव में दृढ निश्चय के साथ खुद को झौंक देते हैं तो क्या हो सकता है ये अनाया ने कर दिखाया है.”


सोचिये हम हाथों में किस्मत ढूंढते हैं और अनाया बिना हाथों के ही किस्मत की चैम्पियन है.