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सोमवार, 13 जनवरी 2014

संन्यासी, जिसने कभी पूजा नहीं की

                                                                            -विनय कुमार                 

स्वामी विवेकानंद एक ऐसे सन्यासी थे, जिन्होंने कभी पूजा-पाठ नहीं किया और न ही कभी कर्मकांड को महत्त्व दिया. जो कि आज के सन्यासी होने की आवश्यक शर्तें हैं. जिस सन्यासी ने कभी भगवान का नाम लेकर समाज की समस्याएं दूर नहीं कीं, बल्कि उन्होंने आध्यात्म की ऐसी राह दिखाई, जिसमें व्यर्थ के अन्धविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं था. तर्कसंगत ढंग से समाज में व्याप्त दुखों और समस्यायों के कारणों को खोज कर भारतीय समाज में वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करने में अहम भूमिका निभाई.
मात्र उनतालीस साल के जीवनकाल में, बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में न केवल ज्ञान के गहरे सागर का मंथन कर महत्वपूर्ण सत्यों की खोज की, बल्कि उन्हें अपने लेखन के माध्यम से दूर-दूर तक प्रसारित किया और लंबे समय के लिए मानव कल्याण के लिए छोड़ गए. उनकी इस तपस्या का लाभ करोड़ों लोगों को जीवन बदलने वाले संदेशों के रूप में मिला.

युवाओं के लिए उनके सन्देश एक अमर तत्व की तरह हैं, अपने जीवन में वे महत्वपूर्ण सवालों के जबाब खोजते रहे. सच्चाई की यह खोज ही उन्हें ऐसे समाधानों कि ओर ले गयी, जो आज भी युवाओं का मार्गदर्शन करते हैं. जिस तरह आज के युवा तनाव और भागमभाग की अंधी दौड में बिखराव सी ज़िंदगी जी रहे हैं, और युवावस्था में ही डिप्रेसन और निराशा से भरे हैं, ऐसे में स्वामी जी के चरित्र निर्माण के सन्देश अपनाकर युवा चुनोंतियों के संसार में सहज ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकते हैं. विवेकानंद कहते हैं कि अगर आज आपने आत्मसाक्षात्कार नहीं किया तो आपने एक महान इंसान से मिलने का अवसर गवां दियासच ही तो है आज की भागदौड में हम कितना वक़्त निकाल कर अपना आत्मविश्लेषण करते हैं. जबकि यह हमारे व्यक्तित्व के विकास में सबसे अहम प्रक्रिया है.
उनका सबसे बड़ा सन्देश यही था कि आलस्य और अज्ञान को छोडो और सामाजिक बुराइयों के बंधन को तोड़ कर देश और समाज को आगे ले जाओ. गरीब और उपेक्षित लोगों की सेवा करो, ताकि वे भी बराबरी हासिल कर सकें. महिलाओं को शिक्षा के भरपूर अवसर दो, ताकि वे भी सार्थक बदलाव में भूमिका निभा सकें. इस तरह सब कुरीतियों और कमजोरियों को दूर करने का मार्ग प्रसस्त हो.

स्वामी विवेकानंद जी के शिक्षा और शिक्षार्थियों के बारे में ऐसे विचार रखे, जो आज तक शिक्षा के सुधारों के लिए प्रासंगिक हैं. उन्होंने बच्चों में स्वाभाविक और स्वतंत्र रचनात्मकता को पनपने और खिलने को सबसे अधिक महत्त्व देते हुए कहा कि जैसे पौधा अपने से खिलता है वैसे ही बच्चों को स्व-शिक्षा से अपनी रचनात्मकता विकसित करने का भरपूर अवसर मिलना चाहिए. शिक्षक और अभिभावक कि भूमिका यह है कि वे इसके लिए अनुकूल अवसर दें, इसे अवरुद्ध कभी न करें. ज्ञान को ऊपर से लड़ना नहीं चाहिए.युवाओं को उन्होंने सन्देश दिया कि ‘‘किताबी ज्ञान से बाहर निकल कर कमजोर और निर्धन वर्ग की भलाई और समाज में सार्थक बदलाव की चुनोंतियों से जुडना जरूरी है.’’ उन्होंने स्त्री शिक्षा पर भी अत्यंत जोर दिया और कहा महिलाओं में शिक्षा का प्रसार सबसे जरूरी है और इसके साथ वे क्या राह अपनाना चाहती हैं, इसका निर्णय उन्हें खुद ही लेना है.


आज आवश्यकता है इन विचारों को आत्मसात करने की. ऐसे सन्यासियों की, जो अन्धविश्वासों के ढोंग नही रचाते बल्कि तर्कसंगत उपचारों से देश और समाज को एक सही दिशा दें.

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