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बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

परम्पराओं की दुहाई में समानता का हनन

महाराष्ट्र के शनि-शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं को प्रवेश न देने के लिए हज़ारों साल प्राचीन परंपरा की दुहाई दी जा रही है. किसी भी नियम के प्राचीन होने का तर्क देकर उसे मानने की बाध्यता नहीं थोपी जा सकती। इतिहास गवाह है कि हर धर्म में समय-समय पर सामाजिक सुधार होते रहे हैं।  हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि धर्म लोगों के जीवन में बाधा नहीं बनता बल्कि विकास की संभावनाएं उजागर करता है.

देश कालांतर में अनेक बदलावों से गुजरा है, और तब समय और समाज के अनुरूप परम्पराएँ भी बनी-बिगड़ी है. जिसमें सती प्रथा से लेकर झाड़ फूँक जैसे अंधविश्वासों पर रोक लगी है.तत्कालीन परिवर्तन आजादी के बाद का है, जहां हमने सर्वसम्मति से संविधान के अनुसार परम्पराएँ लिखित रूप में निर्धारित कर लीं हैं. अब जबकि संविधान के अनुच्छेद 14 और 25 में लिंग के आधार पर धार्मिक विभेदीकरण निषेध है, तो फिर कौन सी परंपरा को बचाने के लिए हम महिलाओं को धार्मिक स्थलों से दूर धकेल रहे हैं. और अगर उस हज़ार साल पहले की परंपरा को बचा रहे हैं तो दूसरी ओर संवैधानिक नियमों को भी तो तोड़ रहे हैं, जिसके अनुरूप हमारा देश चल रहा है.

सदियों से हमने आधी आबादी को प्रतिबंधित कर बहुत कुछ खोया है. अगर उन्हें भी बराबरी पर चलने का मौका दिया जाता तो दुनियां दोगुनी आगे होती। मगर हम हमेशा उनके रास्ते में रोड़े डालते रहे, तमाम तरह के नियम-कानून और परम्पराएँ गढ़ते रहे ताकि वे दुनियां में अपना योगदान न कर पाएं। सोचिये अगर उन्हें बांधने की जगह कंधे से कन्धा मिलकर चला जाता तो हम सदियों आगे होते और आज हज़ारों साल पहले की इस परम्परा में उलझकर एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले नहीं बैठे होते।
यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के जनसंसद में प्रकाशित हुआ है.

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