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शनिवार, 5 मार्च 2016

फुटपाथ के बच्चे निकालते हैं दुनिया का अनोखा अखबार 'बालकनामा'

'जब तुम्हें कोई रास्ता न दे तो अपनी राह खुद ही बना लेनी चाहिए. फिर वो आपकी बनाई राह आने वाली पीढ़ी को रास्ता दे देगी.' 
सोचने में थोडा मुश्किल जरुर है लेकिन असंभव नहीं है. और इसे साबित किया है दिल्ली के सडक पर रहने वाले कामकाजी बच्चों ने. जब इनकी खबर किसी ने नहीं ली तो इन्होने खुद ही खबरें छापने की मुहिम को जन्म दे दिया. और इस तरह शुरू हुआ दुनिया का अनोखा अखबार 'बालकनामा'. गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज 'बालकनामा' दुनियाँ का ऐसा अनोखा अखबार है जिसे सडक पर रहने वाले कामकाजी बच्चे निकालते हैं. ये बच्चे खुद ही इसके रिपोर्टर हैं. खबरें खुद ही लिखते हैं और जिसे लिखना नहीं आता वो बोल-बोल कर लिखने वाले से लिखवा लेता है. फिर इसे खुद ही एडिट कर छापते हैं और दस हज़ार बच्चों तक पहुंचाते हैं.

फुटपाथ की ज़िंदगी कभी सुर्खियाँ नहीं बन पाती, चाहे बात देश के भविष्य की ही क्यों न हो? देश की राजधानी में भी इनकी समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता. 'चेतना' नाम की गैर सरकारी संगठन ने इन बच्चों को ये प्लेटफोर्म दिया जहाँ अपनी बात न सिर्फ रख सकते हैं बल्कि हजारों लोगों तक पहुँचा सकते हैं.
बालकनामा की पांच हज़ार प्रतियाँ छपती हैं. ये पहले त्रिमासिक था लेकिन अब हर दो महीने पर छपता है और सम्पादकीय टीम इसे हर महीने छापने कि योजना पर काम कर रही है.
इस अखबार में इनकी अपनी दुनियाँ की ख़बरें होती हैं जो मुख्य धारा के मीडिया में कभी नहीं आतीं. फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की समस्याएं और उन पर होते अत्याचार की खबरें सीधे उन्हीं बच्चों से लिखवाई जाती हैं. बाल मजदूरी, यौन अपराध और पुलिस के अत्याचार की ख़बरें छपती हैं.


कहते हैं ना कि प्रतिभाए आभाव में ही निखरती हैं. इनकी अपनी निजी ज़िंदगी की कहानियाँ भी कम प्रेरित करने वाली नहीं हैं. अपने बचपन में जितनी मुसीबतों से इनका सामना हुआ उन्हीं मुसीबतों से अब औरों को बचा रहे हैं.
इनके एक रिपोर्टर हैं शम्भू. शम्भू अपने बारे में बताते हुए कहते हैं कि "मैं पहले गाँव में अपने परिवार के साथ रहता था, गरीबी के कारण पापा मुझे काम करवाने के लिए दिल्ली ले आये जहाँ उन्होंने मुझे एक दुकान पर लगा दिया. दुकान का मालिक मुझे मारता था इसीलिए फिर वहाँ से छोड़कर स्टेशन पर ठेला लगाने लगा. मुझे पढ़ने का बेहद शौक था. सामान बेचते-बेचते जब किसी को स्कूल की ड्रेस में देखता था तो मैं भी अपने पापा से कहता था कि मुझे भी पढ़ने जाना है"

बालकनामा की संपादक शन्नो इस अखबार से २००८ से जुड़ी. वे बताती हैं कि बलाकनामा के चार शहरों में रिपोर्टर जुड़े हैं. जिनसे हम समय समय पर मिलते रहते हैं.
"बालकनामा के रिपोर्टर दिल्ली, आगरा, झाँसी और ग्वालियर शहरों के कामकाजी बच्चे हैं, जिनसे हम ख़बरें लेते हैं. हमारे दो तरह के रिपोर्टर हैं. एक तो वे, जो लिख सकते हैं जो हमारे प्रॉपर रिपोर्टर हैं. और दूसरे जिन्हें हम बातूनी रिपोर्टर बोलते हैं, वे अपनी ख़बरें बोल-बोल के हमसे लिखवाते हैं."

विजय कुमार बालक नामा के सलाहकार हैं. विजय कुमार देश-विदेश के कई सार्वजनिक मंचों पर अपनी प्रेरक कहानी सुना चुके हैं. वे अखबार के पाठकों के बारे में बताते हैं "हमारा जो संगठन है 'बढते कदम' उससे दस हज़ार बच्चे जुड़े हैं जिन तक ये अखबार पहुँचता है. इसके अलावा हम बाज़ारों में आम लोगों को और बच्चों के लिए काम करने वाले संगठनों को भी भेजते हैं."

सम्पादकीय टीम में शामिल चांदनी २०१० से बालक-नामा से जुड़ीं और २०१२ से २०१५ तक संपादक भी रही हैं. चांदनी कहती हैं कि "ये बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं और अगर सरकार विकास की शुरुआत इन बच्चों से करेगी तो देश सबसे बेहतर विकास करेगा" चांदनी का सपना है कि वो बचपन को संवारेंगी और उन्हें वो सबकुछ देने की कोशिश करेंगीं जो उसे नहीं मिल पाया. "मेरा स्कूल जाने का बहुत मन करता था पर मेरी मां मुझे हर बार स्कूल से पकड़ के ले आती थी वो कहती थी कि अगर तू स्कूल जायेगी तो कमाएगा कौन? अभी मैं यहाँ जुड़ने के बाद ओपन स्कूल से पढाई कर रही हूँ. जो शिक्षा मैं नहीं पा सकी वो मैं अपने जैसे बच्चों को दूंगीं. ये मेरा सपना है कि जो बच्चे कहीं फंसे हुए हैं उन्हें बेहतर ज़िंदगी मिल सके."

बालक नामा प्रेरणा का स्रोत है हम सबके लिए जो संसाधनों के इतने बड़े संसार में काम करते हैं. जहाँ अभाव है वहाँ संभावनाएं भी पैदा की जा सकती हैं. जहाँ रास्त नाहीं है वहाँ नई सडक बनाने का बेहतरीन अवसर हमेशा मौजूद रहता है. दुनियाँ के सारे रास्ते ऐसे ही बने हैं.

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