टीवी चैनलों में ख़बरों को परोसने की जल्दबाजी खतरनाक होती जा रही है. जे एन यू मामले में एक वीडियो की बिना जाँच-पड़ताल किए देश में विद्रोह का माहौल बना दिया गया. और तो और कई दिनों तक एंकर चिल्ला-चिल्ला कर दर्शकों में आक्रोश पैदा करते रहे. लग रहा था जैसे देश से आह्वान कर रहे हों कि वक्त आ गया है उठ खड़े होने का. देश में ही दो खेमे बाँट दिए गए. इसे टी आर पी कहेंगे या जल्दबाजी की होड़. सवाल यह है कि क्या वे अपनी देशभक्ति साबित कर रहे थे या लोगों को देशद्रोह का सर्टिफिकेट बाँट रहे थे.
ये पहली बार नहीं हुआ है इससे पहले भी नेपाल-भूकंप जैसी गंभीर घटनाओं के दौरान भी जल्दबाजी में भी ऐसी खबरें बनाईं गयीं. ऐसी जल्दबाजी वाली उडती-उडती ख़बरें तो सोशल मीडिया या फोन से सबको पता चल ही जाती हैं, तो फिर लोग क्यों मीडिया के पास जाए. लोग अखबार या टीवी चैनल इसलिए खोलते हैं ताकि ख़बरों की विश्वसनीयता और सही नजरिए से देख सकें. इस भडकाव भरे सलीके के लिए तो व्हाट्स एप और फेसबुक बेहतर हैं. फिर मीडिया की आवश्यकता क्या रहेगी.
मीडिया को अपनी भूमिका तय करनी होगी वर्ना लोग टीवी देखना बंद कर देंगे. बिना सत्य-तथ्य की जाँच किए महज ख़बरें परोसकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाडना खतरनाक हो सकता है. मीडिया का काम सिर्फ ख़बरें देना नहीं है, खबरों से समाज की दिशा और दशा तय करना भी है.
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