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सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

सरकार की साजिश

पूरा देश आक्रोश और विद्रोह की आग से भरा हुआ है. स्व-घोषित देशभक्त सड़कों पर उतरकर देशद्रोहियों को देश से बाहर खदेड़ने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. पुलिस गिरफ्तारियां कर रही है. कोर्ट पेशी को आने वाले आरोपियों को सुरक्षा देने में लाचार है. देशद्रोह के आरोपी खुद को देशभक्त बताने के लिए राष्ट्रवाद की परिभाषाएं लिख रहे हैं. इन सबके बीच सरकार चुप है. सरकार जनता को देशभक्ति के नाम पर लडाकर चुप्पी साधे देख रही है. उसका काम सिर्फ इतना है कि कभी-कभार ये आग मंद पड़ती भी है तो उसमें हाफिज सईद का हाथ होने का सुराग देकर घी डाल देती है. हमें समझना होगा कि हमें अहम सवालों पर सोचने से हमारा ध्यान भटकाने की ये सरकार की सोची-समझी चाल है. हम इधर लड़ मर रहे हैं उधर बैंको के लाखों करोड़ रूपयों के कर्ज डूब गए. बजट सत्र आने वाला है जिसमें बजटों से उम्मीदों पर बातें करने का हमें वक़्त ही नहीं दिया जा रहा.
एन. एस. एस. ओ. की अरसठवीं रिपोर्ट में बेरोजगारी का स्तर बढ़ गया है, लेकिन हमें देश-भक्ति की आग से फुर्सत लेने दी जाए तब तो हम सोचेंगे कि अच्छे दिन कब आयेंगे. हमें सवाल उठाने की समझ ही पैदा नहीं होने दी जा रही. देशभक्ति का सवाल ही इतना अहम बना दिया गया कि इसके आगे सब कुछ तुच्छ है. जरा सोचिए कि अगर इस होड़ में देशभक्ति का सर्टिफिकेट मिल भी गया तो क्या देशभक्त भुखमरी और बेरोजगारी से नहीं मरेंगे. 

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

खबरों की खतरनाक जल्दबाजी

टीवी चैनलों में ख़बरों को परोसने की जल्दबाजी खतरनाक होती जा रही है. जे एन यू मामले में एक वीडियो की बिना जाँच-पड़ताल किए देश में विद्रोह का माहौल बना दिया गया. और तो और कई दिनों तक एंकर चिल्ला-चिल्ला कर दर्शकों में आक्रोश पैदा करते रहे. लग रहा था जैसे देश से आह्वान कर रहे हों कि वक्त आ गया है उठ खड़े होने का. देश में ही दो खेमे बाँट दिए गए. इसे टी आर पी कहेंगे या जल्दबाजी की होड़. सवाल यह है कि क्या वे अपनी देशभक्ति साबित कर रहे थे या लोगों को देशद्रोह का सर्टिफिकेट बाँट रहे थे. 
ये पहली बार नहीं हुआ है इससे पहले भी नेपाल-भूकंप जैसी गंभीर घटनाओं के दौरान भी जल्दबाजी में भी ऐसी खबरें बनाईं गयीं. ऐसी जल्दबाजी वाली उडती-उडती ख़बरें तो सोशल मीडिया या फोन से सबको पता चल ही जाती हैं, तो फिर लोग क्यों मीडिया के पास जाए. लोग अखबार या टीवी चैनल इसलिए खोलते हैं ताकि ख़बरों की विश्वसनीयता और सही नजरिए से देख सकें. इस भडकाव भरे सलीके के लिए तो व्हाट्स एप और फेसबुक बेहतर हैं. फिर मीडिया की आवश्यकता क्या रहेगी.

मीडिया को अपनी भूमिका तय करनी होगी वर्ना लोग टीवी देखना बंद कर देंगे. बिना सत्य-तथ्य की जाँच किए महज ख़बरें परोसकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाडना खतरनाक हो सकता है. मीडिया का काम सिर्फ ख़बरें देना नहीं है, खबरों से समाज की दिशा और दशा तय करना भी है. 

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

परम्पराओं की दुहाई में समानता का हनन

महाराष्ट्र के शनि-शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं को प्रवेश न देने के लिए हज़ारों साल प्राचीन परंपरा की दुहाई दी जा रही है. किसी भी नियम के प्राचीन होने का तर्क देकर उसे मानने की बाध्यता नहीं थोपी जा सकती। इतिहास गवाह है कि हर धर्म में समय-समय पर सामाजिक सुधार होते रहे हैं।  हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि धर्म लोगों के जीवन में बाधा नहीं बनता बल्कि विकास की संभावनाएं उजागर करता है.

देश कालांतर में अनेक बदलावों से गुजरा है, और तब समय और समाज के अनुरूप परम्पराएँ भी बनी-बिगड़ी है. जिसमें सती प्रथा से लेकर झाड़ फूँक जैसे अंधविश्वासों पर रोक लगी है.तत्कालीन परिवर्तन आजादी के बाद का है, जहां हमने सर्वसम्मति से संविधान के अनुसार परम्पराएँ लिखित रूप में निर्धारित कर लीं हैं. अब जबकि संविधान के अनुच्छेद 14 और 25 में लिंग के आधार पर धार्मिक विभेदीकरण निषेध है, तो फिर कौन सी परंपरा को बचाने के लिए हम महिलाओं को धार्मिक स्थलों से दूर धकेल रहे हैं. और अगर उस हज़ार साल पहले की परंपरा को बचा रहे हैं तो दूसरी ओर संवैधानिक नियमों को भी तो तोड़ रहे हैं, जिसके अनुरूप हमारा देश चल रहा है.

सदियों से हमने आधी आबादी को प्रतिबंधित कर बहुत कुछ खोया है. अगर उन्हें भी बराबरी पर चलने का मौका दिया जाता तो दुनियां दोगुनी आगे होती। मगर हम हमेशा उनके रास्ते में रोड़े डालते रहे, तमाम तरह के नियम-कानून और परम्पराएँ गढ़ते रहे ताकि वे दुनियां में अपना योगदान न कर पाएं। सोचिये अगर उन्हें बांधने की जगह कंधे से कन्धा मिलकर चला जाता तो हम सदियों आगे होते और आज हज़ारों साल पहले की इस परम्परा में उलझकर एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले नहीं बैठे होते।
यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के जनसंसद में प्रकाशित हुआ है.

सरेआम पिटते पत्रकार

पटियाला हॉउस कोर्ट परिसर में 15 फरवरी को वकीलों ने कवरेज को गए पत्रकारों के साथ मारपीट की और उन्हें कोर्ट परिसर से बाहर निकाल दिया. मामला जे एन यू मे हुए देशविरोधी कार्यक्रम और देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार जे एन यूं के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की पेशी के दौरान हुआ जब कुछ वकीलों और भाजपा नेताओं ने जे एन यू छात्रों पर देश के गद्दार होने का आरोप लगाते हुए हमला बोल दिया. बात यहीं तक नहीं रुकी हमलावरों ने पत्रकारों को भी देशद्रोही घोषित कर दिया और मारपीट शुरू कर दी.
हमला करने वाले कोई अनपढ़ लोग नहीं थे, वकीलों ने इस घटना को अंजाम दिया है. जो कि सबसे बडी चिंता का विषय है. वकील कोर्ट के दरवाजे पर ही खुद जज बनकर सजा देने लग जायेंगे तो देश में न्याय का हश्र क्या होगा? हमारे देश में आतंकवादियों का मामला भी देश के ही वकील लड़ते हैं. तब भी दोनों पक्षों की बात ध्यानपूर्वक सुनी जाती है. कोर्ट के लिए तो आरोपी भी तब तक बराबर है जब तक उस पर अपराध सिद्ध नहीं हो जाता.


कोर्ट परिसर में ऐसी घटनाओं को अंजाम देना न्यायपालिका पर आम जन की विश्वसनीयता पर भी एक सवाल बन गया है. जब दूसरे पक्ष के छात्रों सहित पत्रकारों पर भी हमले होते हैं तो कोई आम आदमी कैसे अपने सुरक्षा की आस लगा सकता है. 
न्यायपालिका को मामला अपने संज्ञान में लेकर सख्त कदम उठाने होंगे. मामला कोर्ट परिसर में हुआ है इसलिए अत्यंत आवश्यक है कि दोषियों को कड़ी सजा देकर आम जन को आश्वस्त करे कि वे कोर्ट से सुरक्षित न्याय की गुहार लगा सकते हैं.


असल में ये हमला देश के लोकतंत्र पर हमला है जहाँ इसके चौथे स्तंभ के विरोधी विचारों पर सरकार हमला करेगी तो पहले से ही हताहत स्तंभ गिरने में वक्त नहीं लगेगा. देशभक्त होने का मतलब कभी भी सरकार समर्थक होना नहीं रहा. हमेशा मीडिया आलोचनात्मक रवैया अपनाती ही है, आपातकाल के दौरान भी मीडिया ने खतरे उठाकर सरकार के विरोध में जमकर लिखा है. लेकिन इस वक्त तो वैसे ही गिने-चुने पत्रकार मुखर होकर लिख-बोल पा रहे हैं और अगर उन पर भी हमला कर देशद्रोही घोषित कर दिया जायेगा तो फिर सब ऐसे देशभक्त पत्रकार बचेंगे जो सरकार के भक्त होंगे.
यह लेख जनसत्ता, हिंदुस्तान, दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित हो चुका है. 

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

इश्क तो बस इश्क है....


“वो कभी साथ-साथ नहीं बैठे... उन्होंने कभी हाथों में हाथ लेकर कोई लंबी सैर नहीं की.. कॉलेज की सीढ़ियों पर बैठकर कभी जरूरी बातों के लिए भी वक़्त नहीं निकल पाए.. एक दूसरे से मिलने पर डर और शर्म की हलकी चादर हमेशा दोनों के बीच एक दीवार बनकर खडी रही... कुछ ही फासलों पर रहकर कभी एक दूसरे से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए... करीब से गुजरे तो रोंगटे खड़े हो गए और बडी दूर से जुटाई गयी बोलने की हिम्मत पास आकार सिर्फ हल्की मुस्कुराहट में सिमट गयी...
.....मगर दोनों एक पल के लिए भी एक दूसरे के मन से ओझल नहीं हुए.. हमेशा स्मृतियों में एक स्थाई वजूद लिए मौजूद रहे... गैर-मौजूदगी में एक एहसास बनकर साँसों में घुलते रहे.. आसपास रहकर सुकून भरी खुशबू की तरह महकते रहते... और एक दूसरे की ताकत बनते रहे.. किसी महफ़िल में दो कोनों से आँखों की तिरछी कनखियों से एक दूसरे को चुपके-चुपके निहारते रहे.. जब नज़रें मिलती तो सहम कर झुक जातीं रहीं..!" 


प्रेम और दोस्ती में एक बड़ा फर्क अभिव्यक्ति के मामले में भी होता है. जब हम प्रेम में होते हैं तो जुबां से शब्द नहीं निकलते वहीं दोस्ती में खुद को बढा-चढा कर पेश करने में आगे होते हैं. प्रेम में हम सामने वाले से बिना कहे समझने की आरजू पाले होते हैं. बहुत कुछ कहना नहीं चाहते. सामने वाले को इजाजत देते हैं कि वो हमारा जेहन पढे, हमें महसूस करे. चेहरे की शिकन देखकर परेशानी का अनुमान लगा ले. चुप्पियों को सुनकर हादसों की कहानी जान ले. आँखों को पढकर चाहतें पढ़ ले....
हमारा समाज ही ऐसा है जहां कभी प्रेम में पूर्णता नहीं रही... हमेशा एक अधूरापन कसक बनकर खटकता रहा.. जो सोचा वो पहले तो खुद के डर और शर्म से पर्दों में छुपा रहा फिर कभी घर-परिवार के डर से, कभी समाज के डर से हकीकत की चादर नहीं ओढ़ पाया.. 
वो हजारों अधूरी ख्वाहिशें मन से स्याही की रेखाओं में कागज पर उतरती रहीं.. वही जब किसी ने पढीं तो नज़्म बन गईं..

मगर क्या करें ? ये उम्र ही ऐसी है, जिसमे सपने देखने की अपार शक्ति होती है, कितनी बंदिशों के बाबजूद हजारों ख्वाहिशे पलती रहती हैं हर पल.. बिना ये सोचे कि इन्हें पाना बहुत मुश्किल है.. आँखे सपनों का घर बन जाती हैं.. और फिर प्रेम की ऊर्जा तो सोचने की सारी सीमाएं ही तोड़ देती है.. कल्पनाओं का ऐसा संसार बनता है कि धरती की बजाय आसमां पे आशियाँ होता है.. चाँद-तारे उपहार बन जाते हैं.. और हसीन वादियाँ मुहब्बत की सैर...
 और उन वादियों में बैठकर बरबस फूट पड़ता है---
    "क्षण भर तुम्हें निहारूं 
    अपनी जानी एक एक रेखा पहचानूँ 
  चेहरे की, आँखों की .. अंतर्मन की
और हमारी साझे की अनगिनत स्म्रतिओं की "
मगर यही सब जब वास्तविक दुनियां में नामुमकिन सा होता है.. तो फिर कई बातें जुबां तक आते आते रुक जाती हैं.. अधूरी ख्वाहिशें मन में मसोसे जीते रहते हैं...
मगर बड़ी खूबसूरत बात है कि शायद ये अपूर्णता ही हमे और ज्यादा करीब ले जाती है.. सब कुछ पा लेना और संतुष्ट हो जाना ही जीवन का सार नहीं है.. अतृप्त इच्छाएँ एक नई ऊर्जा का संचार करती हैं और एक आग लगी रहती है चाहत की.. जहां कभी गुलज़ार के गीत एक खूबसूरत दुनियां में ले जाते हैं तो जगजीत सिंह की कोई गज़ल एक मीठी चुभन की तरह जेहन में उतर जाती है.
यही तो वो तड़प है जो प्रेम को अनमोल बना देती है. यही है वो आग का दरिया जिसे पार करने वाला महान हो जाता है... यहीं से उपजती हैं वो हजारों भावनाएं जिन्हें शब्द दे पाना लगभग नामुमकिन होता है.. कसक और तड़प के बीच महसूस की जाने वाली अनुभूतियाँ कभी कागज पर नहीं उतर पायीं... फिर मुहब्बत की कविता का देवता कीट्स भी यही कह पाता है-   
"जो सुना गया वह मधुर था.. जो अनसुना रहा वह और भी ज्यादा मधुर .."



पाने की लालसा और जद्दोजहद मंजिल के सफर को रोचक बना देती है, पा लेना एक विराम है. जिसके बाद वहीं खड़े रहना होता है, ज़िंदगी में स्थिरता आ जाती है. और जीवन एक संतोष भरा बन जाता है, फिर कोई चाहत नहीं.. जेहन में कोई हरारत नहीं रहती..
उसकी तुलना में पाने की चाहत में दौड़ते रहना एक गतिशील क्रिया है जिसमे हर पल कुछ न कुछ नया घटता रहता है.. कभी खोने का डर तो कभी एक झलक पा लेने की खुशी ज़िंदगी में रोमांच बनाये रखती है.. एक पल में सारा जहान अपना लगता है,,, तो दूसरे ही पल सब कुछ मुट्ठी से रेत की तरह फिसलता नज़र आता है.. मगर फिर भी इस अनुभव को ज़िंदगी भर जीते रहने के लिए गुज़ारिश है-
"इच्छा करने में जो सुख है, सबकुछ पाने में प्राप्त कहाँ,
  मैं तुमसे मांगू, तुम दाने-दाने को तरसाती जाओ.."


तुम पास रहो  न रहो, बस तुम्हारे साथ होने का एहसास मात्र मेरे भीतर के तुम्हारे चेहरे जैसी एक तस्वीर बनाये रखता है.. लगता रहता है मेरे वजूद में एक ऊर्जा की लौ जल रही है.. हर पल पास न होते हुए भी मेरे अंतस में एक साये की  तरह घुली रहती हो.…मगर, बहुत  कुछ शेष है जो अभी घुल नहीं पाया है हमारे बीच.…… 

"पाने की तड़प जिंदा रखेगी तुम्हें,
                           मेरे भीतर..
हर पल ख्याल रखेगा तुम्हारा,,
                            तुम्हें खोने का डर..."

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

मनरेगा में बढ़ी है महिलाओं की भागीदारी

मनरेगा के तहत कुल कामगारों में 57 प्रतिशत महिलाएं हैं. मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ना एक शुभ सूचक है. गाँव में महिलाएं घरेलू कामकाज के साथ-साथ खेतीवाडी के काम में भी हाथ बंटाती हैं लेकिन उनके काम को कभी भी आय का स्रोत नहीं माना जाता. ऐसे में मनरेगा की कमाई पर उनका अधिकार होगा और वे आत्मनिर्भर बनेंगीं.
कई घरों में जहाँ पुरुष नहीं है और महिलाएं ही घर चलाती हैं. ऐसे में वे बाहर कमाने के लिए नहीं जा सकतीं तो गाँव में ही दूसरे खेतों में अनाज बीनकर या जंगलों से लकडियाँ तोडकर गुजारा करती हैं. अब उन्हें सौ दिन का रोजगार मिलने से आसानी से घर चला सकती हैं. गाँवों में कुएं की खुदाई से काम की समस्या तो दूर हुई ही साथ ही महिलाओं को दूर-दराज से पानी लाने से भी राहत मिली है. मनरेगा से गाँवों में सडक, नालियां, नलकूप और तालाब के निर्माण से सुविधाएँ तो बढ़ी ही हैं साथ ही रोजगार भी मिला है. 
खेती में सूखे की मार से किसान मजदूरी के लिए शहरों को पलायन करते हैं. एक बार शहर में काम मिलने के बाद वे वापस गाँव मे लौटकर खेतीवाडी का जोखिम नहीं लेना चाहते और इस तरह किसान कृषि से शहरों में मजदूर बन रहे हैं. मनरेगा ने पलायन को मजबूर किसानों को गाँव में ही काम देकर उन्हें कृषि से जोड़े रखा है. वे गाँव में ही रहकर काम करते हैं और फसल के समय आसानी से खेती भी कर सकते हैं.
सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी से पता चला है कि राज्यों से सैकड़ों शिकायतें दर्ज की गयीं. काम करने वालों को समय पर पैसे नहीं मिलने से लेकर ग्राम प्रधान की हेराफेरी और भाई-भतीजावाद जैसी चुनौतियों से निपटना होगा. जरुरत है कि इसकी खामियों को दूर कर इसका असली मकसद हासिल किया जाए. तमाम शिकायतों के बाद भी यह योजना ग्रामीण इलाकों की तस्वीर बदलने में सक्षम है

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

"मंजूरी या मजबूरी"

दिल्ली सरकार ने ऑड-ईविन स्कीम को पुनः लागू करने के लिए जनता से सुझाव मांगे थे. जो उनके पक्ष में आये और अब सरकार जल्द ही इसके लागू होने की तारीखें घोषित करने वाली है. असल में ये स्कीम लोगों की मंजूरी से ज्यादा मजबूरी बन गयी है. इसे मानने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचा है. पंद्रह दिनों तक सपाट सड़कों पर दौड़ने वाले फिर से घंटों जाम में फंसे स्कीम की मांग करने ही लगते हैं. लेकिन गौर करिये, तो क्या यह स्कीम अपने निर्धारित लक्ष्यों को हासिल कर पायी है. प्रदूषण कम करने की मुहिम का हासिल कुछ और ही निकला। ऑड-ईविन स्कीम के दौरान प्रदूषण की बजाय ट्रैफिक कंट्रोल अच्छा हुआ । एक हालिया सर्वे में लोगों ने माना भी कि स्कीम के दौरान पंद्रह दिनों में ट्रैफिक कम हुआ था और जाम की समस्या से निजात मिल गयी थी. इससे समय और ईधन दोनों की बचत होती है. कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि कुछ रूटों पर सफर का समय आधे से भी कम हो गया. ऐसा कई सालों में पहली बार हुआ था जब सड़कें सपाट नजर आईं.
मगर प्रदूषण नियंत्रण रिपोर्टों को देखें तो पता चलता है कि प्रदूषण का स्तर ज्यादा कम नहीं हुआ है. ये स्कीम अगर दुबारा लाई जा रही है तो प्रदूषण रोकने की बात कहना बेमानी होगा। लोग समर्थन में हैं तो सिर्फ इसलिए कि उन्हें ट्रैफिक में राहत नजर आ रही है. लेकिन प्रदूषण कम करने का सवाल अभी भी बेहतर योजना की बाट जोह रहा है. कहीं हम ऑड-ईविन के भ्रम में ही इस खतरनाक सवाल से भटका न दिए जाएँ।

यह लेख हिन्दुस्तान और दैनिक ट्रिब्यून में 11 फरवरी 2016 को प्रकाशित हुआ है.

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

विजेता_के_लिए‬,

जब ख्वाब को कोई चोट लगे 
जब आँखे झुककर छिपना चाहें
जब साँसों मे कोई आह लगे 
जब रुककर हम कुछ रोना चाहें

जब लगे कि कदम नही बढते हैं 
तन बस गिरकर सोना चाहे..
तब मेरे ओ प्यारे साथी..!

तुम झुकना मत, बस रुकना मत
तुम मेरा हाथ थाम लेना
तुम गिरना मत, बस हारना मत
तुम मुझे सिखाना और मैं तुम्हें संवारुंगा
तुम होगे संग तो कोई राह निकालूँगा....

वक़्त भी एकदिन बदलेगा
फिर अपना कर्म भी रंग लेगा
हम चलते रहेंगे धुन अपनी
कल अपना हुनर भी चमकेगा..!
इतना कुछ है इस दुनियाँ मे
कि वक़्त नहीं है एक पल खाली
क्यों हम बैठें किसी शोक में
चल उठ दे हाथ बजाएं ताली

इस दुनियाँ के कैनवास पर
कितने रंग हैं देखेंगे
फिर खुद को रचकर दुनिया को
कुछ ऐसे ढंग से रच देंगे
कहीं रंगोली-कहीं मटमैली सी
एक इबारत लिख देंगे
जितना रब ने भेजा है
उसका सबकुछ सबको दे दें
सांसे चल रही हैं अभी साथ-साथ
तो आओ जिंदा होने का सबूत दे दें..!


विजेता_के_लिए‬, जो जीत के लिए जन्मा है.

"संसद में न हो हंगामा"

संसद का बजट सत्र शुरू होने वाला है. उम्मीद तो कम ही है मगर फिर भी सरकार को इसे गंभीरता से लेन चाहिए वर्ना हंगामे की भेंट चढ़ा ये लगातार तीसरा सत्र होगा। विपक्ष बिलों को आगामी विधानसभा चुनावों का मुद्दा बनाकर सरकार को घेरने की पूरी कोशिश में रहेगी। लेकिन सरकार अब विपक्ष पर संसद न चलने देने का आरोप डालकर पल्ला नहीं झाड़ सकती। जैसा कि हालिया प्रधानमंत्री ने असम में आयोजित एक रैली में इशारा भी किया। 
पिछले मानसून और शीतकालीन दोनों सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गए और दोनों सत्रों में जीएसटी समेत कई अहम बिल राजनीतिक विरोध और हंगामे की वजह से अटके रह गए. संसद जनहित नीतियां निर्धारित करने की बजाय राजनीतिक अखाडा बन गयी है. पिछले सत्रों में लोकसभा की बजाय राजयसभा में ज्यादा समय की बर्बादी हुई थी, जहां विपक्ष बहुमत में है. विपक्ष अपनी भूमिका निभाए मगर संसद की कार्रवाही में बाधा डालकर कोन सी जिम्मेदारी पूरी हो रही है. बिलों पर सार्थक बहस हो और समाधान खोजे जाएँ न कि मर्यादाएं ताक पर रखकर सिर्फ संसद ठप कराने की रणनीति अब जनता भी समझने लगी है. बातचीत से हल निकाले जाएँ और स्पष्ट संवाद से मतभेद दूर कर पक्ष-विपक्ष मिलकर अपनी जबाबदेही तय करें। हंगामे खड़े कर किसी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं होता, बल्कि इसके उलट जनता के खून पसीने की कमाई और समय की बर्बादी ही होती है। करदाताओं के पैसे से चल रही संसद में सिर्फ छींटाकसी कहाँ तक ठीक है. इस बजट सत्र में उम्मीद है कि पुराने अटके पड़े बिल पास होंगे और नए मुद्दों पर चर्चा का वातावरण बनेगा।

घडियाली आँसू

ट्राई के फैसले के बाद फेसबुक के मुखिया मार्क जकरबर्ग ने कहा है कि वे भारत में इंटरनेट समानता के प्रयास जारी रखेंगे. बड़ी संवेदनशीलता जताते हुए जुकरबर्ग ने गरीब लोगों को रोजगार और शिक्षा मुहैया कराने की पहल पर ट्राई की रोक पर निराशा जताई. जुकरबर्ग ने कहा कि हमारा लक्ष्य दुनिया को और खुला बनाना है। जबकि फ्री बेसिक्स योजना इसके खिलाफ है. डिजिटल समानता की बात कहकर डिजिटल गुलामी का जाल फैंकने वाले जुकरबर्ग ने कहा है कि भारत में इंटरनेट संपर्क बढ़ाना महत्वपूर्ण लक्ष्य है और हम प्रयास नहीं छोड़ेंगे क्योंकि भारत में एक लाख से अधिक लोगों के पास इंटरनेट की पहुंच नहीं है और भारत के प्रति हमारी प्रतिबद्धता भी बनी रहेगी। जुकरबर्ग गरीबी को हथियार बनाकर भावनात्मक रूप से लोगों का फायदा उठाना चाहते हैं. उनके सौ करोड़ लोगों लोगों को शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य से जोड़ने के वादे हमारे नेताओं की तरह एकदम खोखले हैं.
जुकरबर्ग के इस वक्तव्य के बाद ट्राई को और सावधान रहने की जरुरत है. क्योंकि भविष्य में फेसबुक फिर किसी रणनीति से भारत में बड़े बाज़ार पर कब्ज़ा करने की घुसपैठ करेगा.

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

ट्विटर की पहल के बाद सरकार की बारी

ट्विटर ने आतंकी गतिविधियों से जुड़े सवा लाख अकाउंट बंद कर दिए. इनमें से ज्यादातर खाते आतंकी संगठन आईएस से जुड़े थे, जिनका प्रयोग धमकियां और आतंकी भावना उकसाने के लिए किया गया था.
ऐसे में इन खातों को रद्द करने की पहल सराहनीय है.
सोशल मीडिया के जरिए इंटरनेट पर बढती घुसपैठ के लिए सरकार कोई पुख्ता प्रणाली नहीं बना पाई है. हाल ही में आई एस में भर्ती होने जा रहे युवकों की गिरफ्तारी से पता चला था कि उन्हें सोशल मीडिया के जरिए भडकाकर जोड़ा गया था. 
सोशल मीडिया का विस्तार और आजादी आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा भी है. भारत में आतंकी तारों को जोड़ने के लिए इंटरनेट का प्रयोग कई बार सामने आ चुका है. लेकिन सरकार अभी तक ऐसा कोई तंत्र नहीं बना सकी है जिससे इन दुरुपयोगों पर लगाम कसी जा सके. आने वाले समय में साइबर हमले होंगे और उसके लिए अभी से कदम उठाना जरुरी हो गया है. एक तरफ जहाँ सरकार सबकुछ डिजिटल करने की योजनाएं चला रही है, वहीं उसकी सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं.
सरकार ऐसी संस्थाओं से साझेदारी कर ऐसे खतरों का मुकाबला करने की रणनीति बना सकती है. निश्चित रूप से सोशल मीडिया कंपनियों के पास ऐसे खातों की गतिविधियों की पूरी जानकारी रहती है, जिससे वे न सिर्फ ऐसी गतिविधियों पर निगरानी रखकर घटनाओं को रोक सकती हैं बल्कि ऐसे आतंकवादी तत्वों को पकड़ने में सरकार की मदद भी कर सकतीं हैं. इस ओर ट्विटर ने भी कदम बढ़ाया है और इन गतिविधियों पर नज़र रखकर त्वरित कार्रवाही करने वाली टीम की संख्या बढ़ाने की बात कही है. ऐसे में सरकार को भी ऐसी टीमें गठित करनी चाहिए जो इन संस्थाओं के साथ इंटरनेट पर निगरानी रखने का साझा काम करे.

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

तू न रुकना, रुक जाएँगी सारी मुश्किलें..

मंजिलें परछाईं बनकर चल रही हैं
कोशिशें अपनी ये हर पल तक रहीं हैं.
बस दौड़ता चल वक्त कम है, सांस लेने के लिए
खींचता जा तू लकीरें, आने वालों के लिए
मुश्किलें हैं ही नहीं, सब कुछ नया है.
ठोकरें भी हमको देतीं, एक दुआ है
चल चला चल हाथ पकडे
मैं साथ हूँ, अंजाम तक रे
हिम्मतें परखेंगे तेरी, सपने तेरे...
चाहतें होंगी बढाती, कदम तेरे..

तू न रुकना, रुक जाएँगी सारी मुश्किलें..
ठोकरें काबिल नहीं कि पा लें मंजिलें..

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

आतंकवाद के खिलाफ सराहनीय पहल

मुस्लिम संगठन ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिए-ए-मुशाविरत ने पहल की है की वे मस्जिदों, मदरसों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में आइएस के खिलाफ लोगों को आगाह करेंगे.
ऐसी पहल सराहनीय हैं क्योंकि धर्म के नाम पर इंसानियत का खात्मा किसी धर्म की किताब में नहीं है, मगर कुछ तथाकथित संगठन इसे दुष्प्रचारित कर इतना कट्टर बना देते हैं, कि धर्म ही लोगों की जान का प्यासा बन जाता है.
असल में ऐसी पहलें इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि यदि कोई अन्य धर्म का संगठन या व्यक्ति ऐसा करता है तो उसे धर्म विरोधी करार दिया जाता है. अब जबकि उसी धर्म के ही शिक्षक इस्लाम का असल मतलब बतायेंगे तो उस धर्म के मानने वाले लोग अपने धर्मगुरुओं पर भरोसा भी करेंगे और समर्थन भी मिलेगा.नई पीढ़ी का भटकाव कम होगा और ऐसे कट्टर संगठनों की कमर टूटेगी.
कुछ दिनों पहले प्रमुख मस्जिदों के मौलवियों ने भी आइएस के खिलाफ ख़त जारी कर इसे इस्लाम के खिलाफ बताया था. ये धर्मगुरुओं की सामाजिक जिम्मेदारी बनती है कि अगर कोई संगठन धर्म को खतरनाक बना रहा है तो उसके खिलाफ आगे आकर अपनी आवाज बुलंद करें. क्योंकि समाज ने धर्म की रक्षा के साथ-साथ मानवता की भी अहम जिम्मेदारी इन्हें सौंपी है. धर्म के ऐसे गलत इस्तेमाल को रोकने के लिए जब धर्म रक्षक आगे बढ़कर आएगे, तो उनकी बात भी सुनी जाएगी और लोग दुष्प्रचार का विरोध करने की हिम्मत भी जुटा पाएंगे.
आतंकवाद की जड़ें धर्म में दबी हैं, तो धार्मिक स्तर पर ही उन्हें उखाड़ा जा सकता है. आतंकवाद धर्म की गलत परिभाषाओं से उपजी समस्या है. अगर उन्हीं परिभाषाओं को सही रूप में पढाया जाए तो कम से कम आने वाली पीढ़ी में जहर की जगह सौहार्द्य भाव की उम्मीदें की जा सकती हैं. 
आई एस की गर्त में जा चुके लोगों के सुधरने की गुंजाइस से ज्यादा महत्त्वपूर्ण नई पीढ़ी को इसमें भर्ती होने से रोकना है. पूरी दुनियां में जाल फैला चुका यह खतरनाक संगठन युवाओं को धर्म के नाम पर इंटरनेट के जरिये फंसा रहा है. असल में युवाओं के फंसने की वजह ये भी है कि उन्हें जो ऐसे संगठनों द्वारा बताया जा रहा है, उसे वे इसलिए भी सही मान रहे हैं क्योंकि दूसरी तरफ से सब चुप हैं. इसके विरोध में जो हैं भी, वे दूसरे धर्म के हैं. पिछले दिनों पुलिस ने एयरपोर्ट से जिस युवक को गिरफ्तार किया, उसे भावनात्मक रूप से जीवन झोंकने के लिए उकसाया गया था. उस जैसे हजारों युवा भडकाव में बहे जा रहे हैं. जिन्हें बचाने की जिम्मेदारी धार्मिक समाज की है. 
असल में धर्म के नाम पर ऐसे आतंकवादी संगठन जो खतरनाक खेल खेलते हैं, उसके बदले में उस धर्म के मासूम लोग निशाना बनते हैं. पूरी दुनियां में मुस्लिमों को जिस तरह का बर्ताव झेलना पड़ता है, उसका गुनाह उनमे से शायद किसी ने नहीं किया होता, मगर उस धर्म के नाम पर जो आतंकवादी संगठन करते हैं उसकी चपेट में बेगुनाह लोग आतंकवादी की तरह देखे जाते हैं.
यह लेख दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित हो चुका है 



गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

परम्पराओं की दुहाई में समानता का हनन

महाराष्ट्र के शनि-शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं को प्रवेश न देने के लिए हज़ारों साल प्राचीन परंपरा की दुहाई दी जा रही है. किसी भी नियम के प्राचीन होने का तर्क देकर उसे मानने की बाध्यता नहीं थोपी जा सकती। इतिहास गवाह है कि हर धर्म में समय-समय पर सामाजिक सुधार होते रहे हैं।  हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि धर्म लोगों के जीवन में बाधा नहीं बनता बल्कि विकास की संभावनाएं उजागर करता है.

देश कालांतर में अनेक बदलावों से गुजरा है, और तब समय और समाज के अनुरूप परम्पराएँ भी बनी-बिगड़ी है. जिसमें सती प्रथा से लेकर झाड़ फूँक जैसे अंधविश्वासों पर रोक लगी है.तत्कालीन परिवर्तन आजादी के बाद का है, जहां हमने सर्वसम्मति से संविधान के अनुसार परम्पराएँ लिखित रूप में निर्धारित कर लीं हैं. अब जबकि संविधान के अनुच्छेद 14 और 25 में लिंग के आधार पर धार्मिक विभेदीकरण निषेध है, तो फिर कौन सी परंपरा को बचाने के लिए हम महिलाओं को धार्मिक स्थलों से दूर धकेल रहे हैं. और अगर उस हज़ार साल पहले की परंपरा को बचा रहे हैं तो दूसरी ओर संवैधानिक नियमों को भी तो तोड़ रहे हैं, जिसके अनुरूप हमारा देश चल रहा है.

सदियों से हमने आधी आबादी को प्रतिबंधित कर बहुत कुछ खोया है. अगर उन्हें भी बराबरी पर चलने का मौका दिया जाता तो दुनियां दोगुनी आगे होती। मगर हम हमेशा उनके रास्ते में रोड़े डालते रहे, तमाम तरह के नियम-कानून और परम्पराएँ गढ़ते रहे ताकि वे दुनियां में अपना योगदान न कर पाएं। सोचिये अगर उन्हें बांधने की जगह कंधे से कन्धा मिलकर चला जाता तो हम सदियों आगे होते और आज हज़ारों साल पहले की इस परम्परा में उलझकर एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले नहीं बैठे होते।


यह लेख हिन्दुस्तान में प्रकाशित हो चुका है.

सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

जिंदा हो अभी

याद रखो..
तुम ज़िंदा हो अभी !
तुम्हारी साँसे अभी चल रहीं हैं 
और दौड़ रहा है रंगों में खून..
कुछ भी करने की सारी संभावनाएं 
बाकी हैं अभी....
उठो और साबित करो
कि तुम अभी मरे नहीं हो...!