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गुरुवार, 17 मार्च 2016

हिंसक होते प्रदर्शन

देहरादून में विरोध प्रदर्शन के दौरान बी जे पी विधायक ने बेजुबान पशु पर इस कदर अपना आक्रोश उतारा कि उसकी टांग टूट गयी. खून से लतपथ पशु किसका विरोधी है. क्या हममें थोड़ी भी संवेदनशीलता नहीं बची है. विरोध के नाम पर इतने उग्र हैं कि किसी की जान भी लेने को उतारू हो जाते हैं.
देश में विरोध प्रदर्शन खतरनाक होते जा रहे हैं. अभी कुछ ही दिन पहले जाट आरक्षण के दौरान ऐसी आक्रामकता दिखी थी जिससे हरियाणा अभी भी नहीं उबर पाया है. तोड़ फोड़ में लाखों का नुकसान ही नहीं कई लोगों को जान से भी हाथ धोना पड़ा. हाल के विरोध प्रदर्शनों को शक्ति प्रदर्शनों में तब्दील होते देर नहीं लगती। प्रदर्शन सहजता से अपनी मांग उठाने या विरोध करने का एक संयमित तरीका होता है.
ऐसे प्रदर्शनों में पहले पुलिस की लाठियों की खबरे ही आती थी लेकिन अब प्रदर्शनकारी हिंसक होते जा रहे हैं. हमें तय करना होगा कि हम विरोध करने निकले हैं या वार करने। गुस्सा इतना रहता है कि सड़क पर आम आदमी की हालत सकते में रहती है. किसी भी वक़्त उग्र भीड़ हमलावर हो सकती है. प्रदर्शन करने वाले अपना हक़ लेकर ही लौटने का प्रण लेकर सड़कों पर उतरते हैं. प्रदर्शन अब प्रदर्शन कम खूनी क्रांति ज्यादा लगते हैं. 

सोमवार, 14 मार्च 2016

कॉल ड्रॉप पर बेहतर फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने कॉल ड्रॉप मामले में हाई कोर्ट के आदेश को बनाए रखा है. जिसमें कहा गया था कि यदि कोई भी कॉल बीच में कंपनियों की असुविधा से कटेगी तो उपभोक्ताओं को कंपनिया हर्जाना देंगीं. सच्चाई भी है कि अगर कॉल ड्रॉप होने में गलती कंपनी की है तो इसका खामियाजा उपभोक्ता क्यों भुगतेगा. उपभोक्ता असुविधा तो भुगत ही रहा है कम से कम खर्चा तो कम्पनियाँ उठायें. कई बार कॉल ड्रॉप होने के बाद ऐसे मतभेद पैदा हो जाते हैं कि कॉल करने वाला व्यक्ति समझने लगता है कि सामने वाले ने जानबूझ कर कॉल कट कर दिया है और अक्सर दुबारा कॉल करने की जहमत नहीं उठाई जाती.  कॉल ड्रॉप से संवाद में निरंतरता भी टूटती है सो अलग. कॉल ड्रॉप ज्यादातर नेटवर्क में बाधा की वजह से भी होती है, इसलिए उम्मीद है कि हर्जाने के बाद कम्पनियाँ अपनी नेटवर्क प्रणाली सुधारने के लिए प्रयास करेंगी. हर्जाने के खिलाफ इक्कीस कंपनियों ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने मानने से इंकार कर दिया. निश्चित रूप से यह फैसला उपभोक्ताओं के लिए फायदेमंद रहेगा.


शुक्रवार, 11 मार्च 2016

मेरे भाई को बन्दूक देकर निशाना मेरे सीने पर लगा रही है सरकार

संसद में गृह राज्यमंत्री ने एक सवाल का जबाब देते हुए बताया कि हाल मे पाकिस्तान की घुसपैठ बढ़ी है और पिछले तीन साल में 46 पाकिस्तानी एजेंट गिरफ्तार किये गए हैं. उधर जम्मू की सीमा पर सेना ने तीस मीटर लंबी सुरंग खोजी है. यह पहली सुरंग नहीं है पिछले कुछ सालों में यह चौथी सुरंग सामने आई है. लगातार हमलों और घुसपैठी फायरिंग में जवान शहीद होते जा रहे हैं और सरकार हमारे साथ मिलकर उनकी शहादत का महज शोक मना रही है. सीमा पर मरते जवानों पर हमलों के कारकों पर ध्यान देना होगा. एक तरफ सरकार वार्ता का माहौल बनाने में लगी रहेगी और दूसरी तरफ हमारे सैनिक जीवन से हारते रहेंगे. सरकार जबाबी कार्रवाई करनी होगी ताकि हम अपने भाइयों को साजिश से बचा सकें.
सरकार हाल के दिनों में देशद्रोह की आवाजों को दबाने के लिए सैनिकों की शहादत की गाथाएं गा रही है. बल्कि चाहिए तो ये कि उनके अमूल्य जीवन को बचाने के लिए प्रयास करे. सरकार देश में उनकी शहादत को न समझने वालों पर तो सख्त है जबकि उन्हें मारने वालों के लिए कोई रणनीति नहीं बना रही. हम शहीदों का सम्मान करते हैं पर उससे भी ज्यादा सम्मान हम जीवित जवानों का करते हैं. हमें उनकी शहादत से ज्यादा उनकी मुस्तैद पहरेदारी पर गर्व होता है. सरकार उनकी शहादत पर राजनीती करने की बजाय उनकी जान लेने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठाए. महज बातचीत से काम नहीं चलेगा. अब हम उनकी शहादत पर आँसू बहाने की बजाय सवाल करेंगे कि उनकी जान की रक्षा क्यों नहीं की जा रही है. वे क्यों बेमौत मारे जा रहे हैं? जिनके सामने अभी सुनहरा भविष्य पड़ा है उन्हें शहीद क्यों बनाया जा रहा है?

गुरुवार, 10 मार्च 2016

डूबे कर्ज में बैंक भी दोषी

विजय माल्या पर बैंको के नौ हज़ार करोड के डूबे कर्ज में बैंक भी कम जिम्मेदार नहीं है. पूरे मामले में बैंको की कार्यप्रणाली देखकर समझ आता है कि अगर सतर्कता से कदम उठाये गए होते तो स्थिति काबू में आ सकती थी. जब मामला कोर्ट में जा चुका है तो बैंकों पर भी कुछ सवाल उठ रहे हैं. चिंता की बात ये है कि इनमें देश के ज्यादातर प्रमुख बैंक शामिल हैं.
जब माल्या की कंपनियाँ डूब रहीं थीं फिर भी बैंक उन्हें लोन देते रहे. सीबीआई बार-बार बैंकों से माल्या को फ्रॉड घोषित कर उनके खिलाफ शिकायत दर्ज कराने को कहती रही लेकिन किसी भी बैंक ने रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई. तो क्या बैंक भी उनके साथ मिले हुए थे. क्या बैंक भी हेराफेरी कर रहे थे.
विजय माल्या ने जो संपत्ति कर्ज के लिए गिरवी रखी है वो कर्ज का पन्द्रहवां हिस्सा भी नहीं है. तो फिर किस आधार पर बैंकों ने उन्हें नौ हज़ार करोड का कर्ज दे दिया. क्या लोन लेने के लिए घूस का इस्तेमाल किया गया या बैंकों को अधिक ब्याज का लालच दिया गया. इसकी भी जांच होनी चाहिए.
माल्या ने चार हज़ार करोड रूपये की रकम विदेशों में भेजी है, सी बी आई ने जुलाई में ही बैंकों से सम्बंधित देशों से संपर्क करने को कहा था लेकिन नहीं किया गया. पूरे मामले में बैंकों की संलिप्तता की भी जांच होनी चाहिए. इसकी भरपाई के लिए सरकार का पैसा लगेगा इसलिए जरुरी है आम आदमी के टैक्स के पैसे के इस दुरुपयोग  के दोषियों पर कड़ी कार्रवाई हो.

बुधवार, 9 मार्च 2016

आखिर क्या है राष्ट्रवाद ?

देश में आज राष्ट्रवाद के नाम पर बहस छिड़ी हुई है. किसी को जेल तो किसी की पिटाई से राष्ट्रवाद की आग और तेज हो गयी है. राष्ट्रवाद को समझाने के लिए एक तरफ जे एन यू में राष्ट्रवाद की एक्स्ट्रा क्लासें शुरू हो गयीं है जिनमें देश के प्रबुद्ध लोग राष्ट्रवाद पढ़ा रहे हैं वहीं हाल ही मे एक सम्मलेन में वित्तमंत्री जेटली ने कार्यकर्ताओं से कहा कि उनके राष्ट्रवाद की जीत हुई है. दोनों के राष्ट्रवाद दो विपरीत धुरियों पर हैं. एक दूसरे के राष्ट्रवाद एकदम उलट होते हुए एकदूसरे पर हमला कर रहे हैं. देश की जनता क्या समझे कि किसका राष्ट्रवाद सही है और किसका गलत? फिर एक सवाल उठता है कि एक आम इंसान के लिए राष्ट्रवाद क्या है? क्या ये सिर्फ एक विचारधारा है जहाँ मतभेद होने पर देश का माहौल खराब हो सकता है. क्या राष्ट्रवाद देश की गरीबी और बेरोजगारी का कोई समाधान देता है या फिर अपने आप में ही एक समस्या बना दिया गया है?

मंगलवार, 8 मार्च 2016

गूंजती आवाजें

आयोजन उस ऊँचाई पर था जहाँ से देश का सबसे ऊंचा झंडा बैकग्राउंड में लहराता साफ़ दिख रहा था. और उस झंडे के आगे दुनिया बदलती भारतीय महिलाओं की हकीकत कहानियाँ बन कर गूँज रही थीं...
कहानी चांदनी की जिसकी खबर किसी ने नहीं ली तो उसने ऐसी ठानी कि तब तक लडती रही जब तक दुनियाँ के अनोखे अखबार 'बालक नामा' अखबार की संपादक नहीं बन गयी और आज सपने पाल रही है अपने जैसों के सपने हकीकत में बदलने के लिए...

रिया शर्मा कहाँ तो अमेरिका में अपने फैशन के पैशन को उड़ान दे रही थी लेकिन कैसे भारत में ऐसिड पीड़ितों की मुहब्बत में जीवन लगाने का फैसला कर लिया और स्थापित किया‪#‎MakeLoveNotScare‬.
कहानी इलाहाबाद की रेशमा की जिसके जीजा ने तेजाब से चेहरा इतना बर्बर बना दिया कि आईने में देखने से बेहतर आत्महत्या का विकल्प लगने लगा. लेकिन आज कैसे देश में ऐसिड बैन के खिलाफ जंग छेड़े है. हाँ वही रेशमा जो आजकल चर्चित वीडियोज में ब्यूटी टिप्स बताती है और अंत में ऐसिड टिप से हैरत में डाल देती है...

रंगों की सौदागर नीति जैन के सपनों को कैनवास पर जब पिता ने रंग नहीं भरने दिए तो उसने अपने पैरों पर खड़े होकर अपने जैसे दूसरों के सपनों को रंगने के लिए बना लिया 'रंगरेज'..
और आखिरी कहानी कभी कैंसर से जूझती भोपाल की कनिका की जिसे हाल ही में फ़ोर्ब्स ने एशिया के उभरते तीस उद्यमियों की श्रेणी में नामित किया है....
तिरंगा हर हकीकत का गवाह बनकर ‪#‎जोश‬ में लहराता रहा. गर्व था तीनों रंगों को दुनियाँ रचती इन बेबाक जुनूनी रचनाओं पर.... महिला दिवस की शुभकामनाएँ.! 
 


सोमवार, 7 मार्च 2016

दंगो की रिपोर्ट

मुजफ्फरनगर दंगों पर आई जस्टिस विष्णु सहाय की रिपोर्ट में बेशक सपा सरकार साफ़ बच गयी है लेकिन रिपोर्ट कई अहम सवाल छोड़ गयी है. क्या सिर्फ एक एस एस पी और इन्स्पेक्टर ही पूरे दंगे के दोषी हैं. जिन नेताओं ने भडकाऊ भाषण दिए, जिन्होंने हमले कर घर लूटे उनका क्या? जिनके इशारे पर सोशल मीडिया को दंगे को बढ़ा चढाकर व झूठी अफवाह फ़ैलाने के लिए प्रयोग किया गया. व्हाट्स एप पर तालिबान के वीडियो को दंगों से जोड़कर भेजा गया. क्या इसका ठीकरा सिर्फ सोशल मीडिया के दुरूपयोग पर ही फोड़ा जा सकता है. इतनी भीड़ को नियंत्रित न करने के लिए स्थानीय पुलिस को दोषी बता दिया गया लेकिन उनका क्या जिनकी साजिश से भीड़ इकठ्ठा हुई और उनके भडकाने से बर्बर होती गयी. और क्या ये हो सकता है कि पुलिस के उच्चस्तरीय अधिकारी और उनके आदेश इसमें शामिल नहीं थे. प्रशासन को दोषी बताकर पूरी राजनीती साफ़ बच गयी. सभी पार्टियों के नेता जिन्होंने आग लगायी बेदाग हो गए क्योंकि आग न बुझाने के आरोप में पुलिस को सजा मिल गयी.


शनिवार, 5 मार्च 2016

फुटपाथ के बच्चे निकालते हैं दुनिया का अनोखा अखबार 'बालकनामा'

'जब तुम्हें कोई रास्ता न दे तो अपनी राह खुद ही बना लेनी चाहिए. फिर वो आपकी बनाई राह आने वाली पीढ़ी को रास्ता दे देगी.' 
सोचने में थोडा मुश्किल जरुर है लेकिन असंभव नहीं है. और इसे साबित किया है दिल्ली के सडक पर रहने वाले कामकाजी बच्चों ने. जब इनकी खबर किसी ने नहीं ली तो इन्होने खुद ही खबरें छापने की मुहिम को जन्म दे दिया. और इस तरह शुरू हुआ दुनिया का अनोखा अखबार 'बालकनामा'. गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज 'बालकनामा' दुनियाँ का ऐसा अनोखा अखबार है जिसे सडक पर रहने वाले कामकाजी बच्चे निकालते हैं. ये बच्चे खुद ही इसके रिपोर्टर हैं. खबरें खुद ही लिखते हैं और जिसे लिखना नहीं आता वो बोल-बोल कर लिखने वाले से लिखवा लेता है. फिर इसे खुद ही एडिट कर छापते हैं और दस हज़ार बच्चों तक पहुंचाते हैं.

फुटपाथ की ज़िंदगी कभी सुर्खियाँ नहीं बन पाती, चाहे बात देश के भविष्य की ही क्यों न हो? देश की राजधानी में भी इनकी समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता. 'चेतना' नाम की गैर सरकारी संगठन ने इन बच्चों को ये प्लेटफोर्म दिया जहाँ अपनी बात न सिर्फ रख सकते हैं बल्कि हजारों लोगों तक पहुँचा सकते हैं.
बालकनामा की पांच हज़ार प्रतियाँ छपती हैं. ये पहले त्रिमासिक था लेकिन अब हर दो महीने पर छपता है और सम्पादकीय टीम इसे हर महीने छापने कि योजना पर काम कर रही है.
इस अखबार में इनकी अपनी दुनियाँ की ख़बरें होती हैं जो मुख्य धारा के मीडिया में कभी नहीं आतीं. फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की समस्याएं और उन पर होते अत्याचार की खबरें सीधे उन्हीं बच्चों से लिखवाई जाती हैं. बाल मजदूरी, यौन अपराध और पुलिस के अत्याचार की ख़बरें छपती हैं.


कहते हैं ना कि प्रतिभाए आभाव में ही निखरती हैं. इनकी अपनी निजी ज़िंदगी की कहानियाँ भी कम प्रेरित करने वाली नहीं हैं. अपने बचपन में जितनी मुसीबतों से इनका सामना हुआ उन्हीं मुसीबतों से अब औरों को बचा रहे हैं.
इनके एक रिपोर्टर हैं शम्भू. शम्भू अपने बारे में बताते हुए कहते हैं कि "मैं पहले गाँव में अपने परिवार के साथ रहता था, गरीबी के कारण पापा मुझे काम करवाने के लिए दिल्ली ले आये जहाँ उन्होंने मुझे एक दुकान पर लगा दिया. दुकान का मालिक मुझे मारता था इसीलिए फिर वहाँ से छोड़कर स्टेशन पर ठेला लगाने लगा. मुझे पढ़ने का बेहद शौक था. सामान बेचते-बेचते जब किसी को स्कूल की ड्रेस में देखता था तो मैं भी अपने पापा से कहता था कि मुझे भी पढ़ने जाना है"

बालकनामा की संपादक शन्नो इस अखबार से २००८ से जुड़ी. वे बताती हैं कि बलाकनामा के चार शहरों में रिपोर्टर जुड़े हैं. जिनसे हम समय समय पर मिलते रहते हैं.
"बालकनामा के रिपोर्टर दिल्ली, आगरा, झाँसी और ग्वालियर शहरों के कामकाजी बच्चे हैं, जिनसे हम ख़बरें लेते हैं. हमारे दो तरह के रिपोर्टर हैं. एक तो वे, जो लिख सकते हैं जो हमारे प्रॉपर रिपोर्टर हैं. और दूसरे जिन्हें हम बातूनी रिपोर्टर बोलते हैं, वे अपनी ख़बरें बोल-बोल के हमसे लिखवाते हैं."

विजय कुमार बालक नामा के सलाहकार हैं. विजय कुमार देश-विदेश के कई सार्वजनिक मंचों पर अपनी प्रेरक कहानी सुना चुके हैं. वे अखबार के पाठकों के बारे में बताते हैं "हमारा जो संगठन है 'बढते कदम' उससे दस हज़ार बच्चे जुड़े हैं जिन तक ये अखबार पहुँचता है. इसके अलावा हम बाज़ारों में आम लोगों को और बच्चों के लिए काम करने वाले संगठनों को भी भेजते हैं."

सम्पादकीय टीम में शामिल चांदनी २०१० से बालक-नामा से जुड़ीं और २०१२ से २०१५ तक संपादक भी रही हैं. चांदनी कहती हैं कि "ये बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं और अगर सरकार विकास की शुरुआत इन बच्चों से करेगी तो देश सबसे बेहतर विकास करेगा" चांदनी का सपना है कि वो बचपन को संवारेंगी और उन्हें वो सबकुछ देने की कोशिश करेंगीं जो उसे नहीं मिल पाया. "मेरा स्कूल जाने का बहुत मन करता था पर मेरी मां मुझे हर बार स्कूल से पकड़ के ले आती थी वो कहती थी कि अगर तू स्कूल जायेगी तो कमाएगा कौन? अभी मैं यहाँ जुड़ने के बाद ओपन स्कूल से पढाई कर रही हूँ. जो शिक्षा मैं नहीं पा सकी वो मैं अपने जैसे बच्चों को दूंगीं. ये मेरा सपना है कि जो बच्चे कहीं फंसे हुए हैं उन्हें बेहतर ज़िंदगी मिल सके."

बालक नामा प्रेरणा का स्रोत है हम सबके लिए जो संसाधनों के इतने बड़े संसार में काम करते हैं. जहाँ अभाव है वहाँ संभावनाएं भी पैदा की जा सकती हैं. जहाँ रास्त नाहीं है वहाँ नई सडक बनाने का बेहतरीन अवसर हमेशा मौजूद रहता है. दुनियाँ के सारे रास्ते ऐसे ही बने हैं.

हरा हरा के खुद तो नहीं हार जाओगी ज़िंदगी

कुछ दिनों से तुम बहुत शांत हो गयी हो. ज़िंदगी तुम्हरी चुप्पियाँ मुझे अच्छी नहीं लगतीं. मुझे हरा के तुम खुद तो नहीं हार गयी हो ज़िंदगी. तुमने भी इतने बार हराया है कि तुम्हें भी कहीं ये तो नहीं लग रहा कि अब और कितना? एहसास तो जरुर होता ही होगा कि जीत के इतने करीब ले जाकर हराया है तुमने. और एक बार नहीं कई कई बार जीत हाथों में देकर फिसलन पैदा की हैं तुमने. अब तो तुम्हें भी लगने लगा होगा कि हो क्या रहा है.


मेरी हार का तुम रंज न करो. तुम्हें पता है असल हार तब होती है जब मैं खुद मान लूं कि मै हार गया. जीत और हार खुद से तय होती है किसी और के बताने से नहीं. अभी तो मैंने अपने परिणामों में जीत ही हासिल की है. मेरे लिए ये हर हार एक जीत है. हर सफर में मैं कुछ कदम आगे बढ़ ही रहा हूँ और ठोकर खा रहा हूँ.

ठोकरों की एक गजब की बात है कि हमेशा तुम्हें आगे ही फेंकती हैं. और इसीलिए मैं थोडा थोडा ही सही आगे बढ़ता ही जा रहा हूँ. इसके साथ ही मैं बार बार गिरने की वजह से संभालना भी सीखता जा रहा हूँ.

सफलता दिल में होती है. खुद का सर्वश्रेष्ट करने की सफलता और उससे संतुष्ट हो जाने की सफलता. 

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

सपनों की दुनियाँ का पुल

भोर के सपने 


मैं सपनों का एक पुल बनना चाहता हूं. एक ऐसा पुल जिसके सहारे वे सपने पार हो जाएँ जो अक्सर दरिया में बह जाते हैं. दुनियाँ में जीवित इंसान हर दिन सपने पालता है, मगर उसके सपने कई बार जन्म लेते ही दफन कर दिए जाते हैं, तो कई बार कुछ उम्र के बाद उनकी बाल हत्या कर दी जाती है. कई बार तो जवानी में मार दिया जाता है और कई बार असल म्रत्यु से ठीक पहले.

मैं हमेशा ये जानना चाहता हूँ कि लोग ऐसा क्यों करते हैं. जो सपने हैं वही हमारा इस प्रकृति की ख़ूबसूरती में योगदान है. हम अक्सर जैसा चल रहा है वैसे ही चलना चाहते हैं क्योंकि वो आसां होता है. जबकि असल मे वो भी आसान नहीं होता. क्योनी सब आसान हो गया तो जीवन से ऊब हो जायेगी. मुश्किल परिस्थितियाँ ही हमारे जीवन में रोमांच पैदा करती है और हमारी छुपी हुई प्रतिभाओं को सामने लाती हैं.
हम सपनों के रूप में अपनी रचना की हत्या करते हैं. हम उसे अपनी सहूलियत के लिए दरकिनार कर देते हैं. लेकिन ये सच है कि हम अपने होने के अर्थ से भागते हैं. 

दुनियाँ में जो हो रहा है उसका हिस्सा बनना आसान है. उसी आसानी के पीछे हम भागते हैं. दुनियाँ में जो हो रहा है वो सब तो किसी न किसी के सपने का साकार होना है. किसी ने अपने सपने को हकीकत में बदला है. और हम क्या करते हैं? हम अपना दायित्व निभाए बगैर उसी में शामिल हो जाते हैं ये औपचारिकता पूरी करने कि लो हम भी कुछ न कुछ कर ही रहे हैं. कुछ कर रहे हैं ये बहाना हमें बचाता रहता है. 
लेकिन क्या कभी गौर किया है कि जितना आपको अपने सपने के लिए करना था दरअसल उतना ही आप यहाँ भी कर रहे हैं. अगर उससे कम कर रहे हैं तो आप इंसानी शक्तियो का पूरी तरह उपयोग नहीं कर रहे हैं. इंसान होने से धोखा कर रहे हैं.
ये दुनियाँ खूबसूरती में तब्दील करने के लिए बनी है. हम सब को इसमें अपना अपना योगदान ईमानदारी से देना चाहिए. अपना कर्तव्य जिसके लिए हम इस दुनियाँ में आते हैं उसे इमान दारी से निभाना चाहिए.

अब कर्तव्य के सवाल पर कुछ लोग उलझन में पड जाते हैं कि हमारा क्या कर्तव्य है हमें ईश्वर ने क्यों भेजा है, महाशय आपको ईश्वर ने क्यों भेजा है वही बताने के लिए सपनो का निर्माण हुआ है. 
सपने ईश्वर का हमसे बातचीत करने का एक माध्यम हैं. सपनों के माध्यम से ईश्वर हमें हमारे कर्तव्य बतातें हैं. कभी सोचा है आपने कि सपने हमारे दिल के इतने करीब क्यों होते हैं उन्हें पूरा करने के लिए हम ज्यादा उत्साहित होते हैं. हमारी उनमे दिलचस्पी होती है. इसीलिए क्योंकि ईश्वर हमसे वही करवाना चाहते हैं. वो हमारी भलाई के लिए ही ऐसा काम चुनते है जिससे हमें जीवन रंगीन लगने लगे. दुनियाँ की ख़ूबसूरती दिन्खे तभी हम दुनियाँ को खूबसूरत बना पाएंगे.
तो मैं दुनियाँ के इन सपनों के बीच का पुल बनना चाहत हूँ. मैं उन सपनों को थोड़े दिन के लिए आशियाना दे सकता हूँ. उन्हें ऊर्जा दे सकता हूँ जिससे वे अपनी दिशा में चलना आरम्भ कर दें और फिर उन्हें मैं लगातार देखता रहूँगा जहाँ उन्हें मेरी जरुरत पडेगी मैं वहाँ उपस्थित रहूँगा उनके सपनों को खाद पानी देने के लिए....


गायब स्मार्ट सिटी

बजट से स्मार्ट सिटी गायब रहा. जिस स्मार्ट इंडिया की बात हमेशा प्रधानमंत्री जी करते रहे ऐन वक़्त पर उसकी कोई सुध नहीं ली गयी. बजट में सरकार की बाजीगरी आगामी चुनावों को देखते हुए सन्न कर देने वाली है.
सरकार का बजट 'ग्रामीण भारत' का बजट कहा जा रहा है. ऐसा हो भी क्यों न इस साल चार राज्यों में चुनाव होने हैं और उनमें वोट डालने यही भारत जायेगा। 
इस बजट में सरकार ने अमीरों से लेकर गरीबों को देने की कोशिश की है. ज्यादा आमदनी और महँगी गाड़ियों पर अतिरिक्त सरचार्ज से वसूलकर गरीबों को गैस कनेक्शन दिए जायेंगे। इसमें एक की जेब से निकालकर दूसरे की जेब में डालने जैसी बात है. इस लेन-देन में सरकार अपना चुनावी फायदा उठा ले जाएगी। ग्रामीण क्षेत्र पर खर्च सरकार तो करेगी लेकिन कैसे इसका कोई प्रारूप नहीं बताया गया. देखना होगा कि चुनावों को देखते हुए वित्त मंत्री ने जो दांव  खेल है वो कितना फायदेमंद रहेगा।


आतंरिक सुरक्षा की खुलती कलई

इशरत जहाँ मामले में बारह साल के बाद भी ट्रायल शुरू नहीं हो पाया. डेविड हेडली के बयान के बाद पी चिदंबरम की हेराफेरी से इस मामले एक के बाद एक नया मोड आता जा रहा है. अफसरों से लेकर मंत्रियों तक के शामिल होने के खुलासे हो रहे हैं. मामले को इतना पेचीदा बना दिया गया है कि समझना मुश्किल है कि एनकाउंटर फर्जी था या इशरत आतंकवादियों के साथ मिली थी. डेविड हेडली से लेकर पूर्व अधिकारिओं के बयानों में इतने पेंच हैं कि साफ साफ कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा. सच चाहे जो भी हो लेकिन यह मामला एक बेहतर उदहारण बनता जा रहा है यह समझने का कि कैसे देश में पुलिस से लेकर जांच एजेंसिया काम करती हैं. और उनमे सरकारों का हस्तक्षेप भी किस हद तक हो सकता है. सरकारें आरोप-प्रत्यारोप की अपनी राजनीति खेल रही हैं. इस मामले में शामिल लोग अपने-अपने सच सामने ला रहे हैं. देश की सुरक्षा प्रणाली की कलई खुलती जा रही है. इन संस्थाओं में काम कर रहे अधिकारिओं की मानसिकता उभर रही है. इशरत जहाँ को आतंकवादी बताकर मरने वालों की अपनी चालें भी दण्डित होनी चाहिए, इनके षण्यंत्र भी सजा के लिए कम जिम्मेदार नहीं है. न्यायालय को हस्तक्षेप कर मामले में दूध का दूध और पानी का पानी करवा लेना चाहिए. 
बहरहाल मामले में न्याय मिलने की उम्मीद तो छोडिए सच सामने आने की सम्भावना भी कम ही दिख रही है. लेकिन इतना तो तय है कि देश की आतंरिक सुरक्षा तंत्र का उलझा हुआ सच उजागर हो रहा है.
 

गुरुवार, 3 मार्च 2016

मेरे गाँव के मुकाम

भोर के सपने

ग्रामीण भारत में देश की साठ फीसदी जनता रहती है. उनका लक्ष्य महज दो जून की रोटी कमाने के लिए जीवन भर संघर्ष करना रहता है.
गाँवों में इतनी जटिलताएं हैं कि उनमें उलझने से लेकर आपसी समझ बनने तक जीवन गुजर जाता है और नई पीढ़ी पनपने लगती है.
पुरुष कमाने के लिए बाहर निकलते हैं और कुछ समय में कमाकर लौटते हैं और उसे कुछ महीने में खर्च कर लेते हैं. फिर कमाने के लिए घर छोड़ते हैं और ये चक्र जीवन भर चलता रहता है.
महिलाओं की जिम्मेदारी सिर्फ घर सँभालने और भीतर बंद रहने की ही होती है, उन्हें कमाने लायक नहीं समझा जाता. उसके दो तर्क दिए जाते हैं- पहला तो ये कि उनमें सामर्थ्य नहीं है और दूसरा कि इसमें समाज की इज्जत चली जाती है.

इन दोनों तर्कों के अलावा भी जबरदस्ती उनकी पहलों को दबा दिया जाता है. नब्बे फीसदी हिस्सा तो पहले से ही जनता है कि उन्हें काम करने ही नहीं दिया जायेगा तो वे इस बारे में सोचती ही नहीं हैं. बाकी जो दस प्रतिशत आवाज़ भी उठाती हैं उन्हें तिरष्कृत कर दिया जाता है.
मैं ग्रामीण ऊर्जा को सही दिशा में लगाना चाहता हूँ. ये काम क्रांति से नहीं होगा. समाज के खिलाफ जाकर आप बदलाव नहीं कर सकते फिर आप मजह समाज से ही लड़ते रह जायेंगे.
इन्हें घर पर ही काम मुहैया करा के धीरे धीरे मुख्य धारा में लाया जायेगा. कुछ ऐसे काम जिनमे उनका समय भी सुविधानुसार हो और आमदनी भी हो.
गाँव में युवा जो पढाई के नाम पे या कम उम्र होने के कारण खेलों के साथ साथ भटकने की राह पर होते हैं. उनके लिए ऐसा काम जो घंटे दो घंटे करने से जेब खर्च निकल आये और कुछ स्किल भी सीख जाएँ.
इस काम को गाँव के पास किसी फेक्ट्री में लगाया जाए. उसका कच्चा माल भी वहीं हो. व्यापारी बाजार से लगातार संपर्क में हों.
महिलाएं जो घर का काम करके दिन में कुछ घंटों के लिए फुर्सत में होती हैं उन्हने इस काम मे शामिल किया जा सकता है.

बढते नाबालिग अपराधी

नागपुर में एक स्कूली छात्रा के साथ हुए दुष्कर्म में शामिल पांच आरोपियों में चार नाबालिग हैं. इस मामले ने एकबार फिर हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हमारे नौनिहाल किस ओर जा रहे हैं. 
हाल ही में किशोर कानून में संशोधन कर उम्र कम कर दी गयी है लेकिन मामलों में कोई कमी नहीं आई है. आंकड़ों के मुताबिक पचास फीसदी से ज्यादा दुष्कर्मों के आरोपी नाबालिग हैं. पिछले दिनों दिल्ली के कडकडडूमा कोर्ट में सरेआम तीन नाबालिगों ने एक कैदी की हत्या कर दी. 
सवाल ये है कि किशोर की उम्र घटाने से अपराधों में कमी नहीं आ रही है. क्या बच्चों को इस कानून के बदलाव के बारे में पता भी है कि सिर्फ हमने आपस में परिचर्चा कर लागू कर लिया है.
अधिकतर अपराधी कमजोर तबके से हैं, जिन्हें कानून के डर से ज्यादा पेट के लिए संघर्ष करना जरूरी हो जाता है. मजदूरी और भीख मांगने से लेकर तमाम अपराधी गिरोह भी इन बच्चों का दुरूपयोग करते हैं. सरकार कानून बनाकर इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर लेती है. कभी ये समझने की कोशिश नहीं की जाती कि आखिर नौनिहाल क्यों इन अपराधों में संलिप्त हो रहे हैं. क्या उन्हें अपराध करने से रोका जा सकता है. जुर्म की दुनियाँ से इन्हें कैसे निकाला जा सकता है.
अपराध की उम्र घटा देने से सरकार एक बार उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज देगी. लेकिन जेल से निकलने के बाद वे कहाँ जायेंगे. बहुत संभावना है कि वे और बड़े अपराधी बनकर बाहर निकलेगे.


मंगलवार, 1 मार्च 2016

जुनून को सींचने का जुनून

भोर के सपने 

दुनियाँ में ऐसे बहुत लोग हैं जो जुनून से भरे हैं अपने मन का काम करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. मगर उनके पास पैसे की समस्या इतनी है कि उसके दबाब में कला से दूर चले जाते हैं और जीवन भर बेमन से पेट पालने के लिए वही काम करते रहते हैं.

मेरे आसपास ऐसे कई लोग हैं जिन्हें मैंने अपनी आँखों के सामने अपने ख्वाबों से गद्दारी करते देखा है. उदहारण के लिए कहूँ तो थिएटर में काम करते हुए कई ऐसे लोगों से मिला जो कलाकार के रूप में पूरी ज़िंदगी बिताना चाहते थे. मगर कुछ को उनके परिवार वालों ने तो कुछ को साथवालों ने ऐसा डराया कि नौकरी के बिना जीना मुश्किल होगा और वे बिचारे बेमन से नौकरी पाने की होड में लग गए. सालों लग गए क्योंकि उनका मन था ही नहीं नौकरी करने में, तो ज़िंदगी भी उन्हें जानबूझकर असफल बनाती रही कि अब लौटें कम से कम अब खुद को पहचानकर लौट लें, लेकिन खुद को पहचानने के बीच में दूसरों के दबाब की चादर इतनी घनी थी कि वे पहचान ही नहीं पाए.
हालाँकि वे खुद से हमेशा कहते रहे कि एक बार नौकरी मिल जाए फिर थिएटर करता ही रहूँगा, या कुछ दिन काम मिल जाए बस फिर घर वालों को संतुष्ट कर खुद थिएटर में लग जाऊंगा. लेकिन सच्चाई मेरे सामने है कि वे लोग एक बार जाने के बाद कभी नहीं लौट पाए और उस दर्द को सीने में दबाये जीते रहे. काम मिला तो शादी हो गयी फिर बच्चे और उनका खर्चा. ज़िंदगी इतना वक़्त कहाँ देती है कि फिर से सोचा जाए.

मैं भी कमोबेश इसी राह पर हूँ और उन सबकी तरह खुद से भी एक वादा कर रहा हूँ कि बस कुछ दिन काम करने के बाद थियेटर में लौटूंगा. लेकिन मैं भी द्र हुआ हूँ कि मेरे सपनों का भी हश्र उन्हीं की तरह न हो. इसलिए मैंने एक और सपना देखा है.
मैं ऐसे लोगों को सरंक्षण दूँगा. अपनी कमाई में से इनके रहने खाने पीने का बंदोबस्त करूँगा और थियेटर के उनके सपनों को सींचूंगा. होगा ये कि उनके साथ मैं भी लगा रहूँगा.
हम थियेटर को एक अलग राह पर ले जायेंगे. उसे सफल मुकाम देंगे. मैंने सोचा है कि उन सपनों को सींचेंगे जिन्हें कतरने के लिए कैंचिया वहाँ नहीं पहुंची है. कम उम्र के बच्चों को उनके सपनों के मुताबिक भूमिका देकर थियेटर को जीवन में तब्दील कर देंगे.

हम उनसे लिखवायेंगे कि उन्हें भविष्य में क्या बनना है और उसी के मुताबिक भूमिकाएं तय करके नाटक लिखे जायेंगे और उनमे उनकी मनचाही भूमिका दी जायेगी.