जब भी भूख लगती है तो माँ याद आ जाती है
सिर्फ इसलिए नहीं कि पेट भर देती थी..
बल्कि कई बार इसलिए कि
जब खाना नहीं होता था घर में
तो ऐसे बहला देती थी
जैसे भूख सोख ली हो पेट से
और भूख और माँ एक हो गए हों..
कभी कभी बिना गलतियों के ही चिडचिडा उठती थी, डंडा लेकर
ताकि मैं भाग जाऊं रूठ कर दिनभर के लिए
और खेलता रहूँ उन गलियों में
जहाँ भूख का जाना प्रतिबंधित था.
लेकिन कभी उसने मुझे रसोई की तरफ झाँकने भी नहीं दिया..
आजकल जब लौटता हूँ भूख से तैश होकर
और कमरे की रसोई टटोलकर कुछ नही पाता हूँ
तो, पेट में आग लग जाती है..
तब फिर माँ याद आती है कि कितनी बड़ी मनोवैज्ञानिक थी
जानती थी कि
खाली बर्तन देखकर भूख असहनीय हो जाती है..