सोमवार, 25 अप्रैल 2016

जहाँ भी हो...

जहाँ भी हो, खुश हो.!
क्या तुमने कभी सोचा है कि हर किसी के हिस्से का वक़्त होता है. ठीक उसी तरह जैसे हम टाइमटेबल में हर सब्जेक्ट को वक़्त दे देते हैं. गणित को रोज एक घंटा तो हिंदी को आधा घंटा...

ऐसे हमारा आदतन वक़्त भी रिश्तों में यूँ ही बट जाता है. इसके लिए हमें कोई बहुत बड़ा टाइम टेबिल बनाने कि जरूरत भी नहीं पड़ती, हमारा दिमाग अपना केलकुलेशन फिट करके नापतौल कर लेता है.
हाँ.. हाँ..! मुझे खूब याद है कि तुम्हें गणित में कोई दिलचस्पी नहीं है फिर भी ये गणित में इसलिए समझा रहा हूँ क्योंकि इधर बीच तुम्हारे हिस्से का वक़्त खोता जा रहा है.

तुमसे दूर होने के एक अरसे तक तनहा गुजर था.. धीरे धीरे बोझिल होता जा रहा था, क्योंकि उम्मीद की लौ हल्की पड़ पड़ के बुझती जा रही थी. ऐसे में फटाक से दिमाग दिल पर हावी हो गया और टाइम का मैनेजमेंट सही करने के लिए उसने कई आवश्यक काम ढूंढ लिए हैं. लेकिन ये दिमाग के लिए होंगे उसके लिए काम के घंटे.. मेरे लिए तो ये उसी तरह है जैसे पापा की मर्जी के कोर्स में दाखिला लेके वक़्त गुजारना....इसीलिए लगता है कि कई बार ये दिमाग मेरे बीच पापा होने का काम करता है..

मैं तो बस इस वक़्त को गुजरते हुए देखते रहना चाहता हूँ.. क्योंकि मुझे इसमें भी कोई पुरानी छिटकी सी आह सुनाई ही दे जाती है. और फिर दौडकर भी क्या करूँगा.. बढ़ना होगा किसी और को.. बड़ा बनने की दौड़ में एकदम मुझे शामिल नहीं होना.. तुम तो जानते हो ना.!

एक ठहराव में जितना कुछ है उसे सुकून से महसूसना चाहता हूँ. और मेरे लिए जितना कुछ है उसमें आधे से ज्यादा में तुम हो.. ये तुम भी अच्छी तरह से जानते हो..!

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

आखिरी हर्फों में

कोर्स ख़त्म होने की कगार पर है. अलगाव के वक़्त में जुड़ाव ज्यादा होने लगता है. फिर लगने लगता है की कुछ कम हो जायेगा जीवन से. अलगाव अच्छा नही लगता ऐसा नहीं है लेकिन एक अजीब सी तीस उठती है की काश ये ना ही होता तो कितना अच्छा होता.
पत्रकारिता से विज्ञापन एवं जनसंचार का सफ़र कैसा रहा इसे व्यक्त करना मुश्किल है लेकिन इतन है की जो रास्ता यहाँ से मिला है उस पर यहाँ की सीखों को साथ लेकर चला गया तो जीवन आनंद से भर जायेगा.
अभी तक जो मुझे इस क्षेत्र के जिन पहलुओं से लगाव हुआ है वे हैं- विज्ञापन हमें सिखाता है अपनी बात को रोचक तरीके से कहने का कौशल और जनसंपर्क हमें संकट में संवाद की शैली के साथ-साथ कम्युनिकेशन से हम समाधान से लेकर प्रेरणा कैसे दे सकते हैं.
दोनों विषय जब जीवन के धरातल पर उतरते हैं तो लगता है की ये दोनों विषय हर जीव को सिखाने चाहिए. कम शब्दों में, कम समय में अपनी बात इस तरह रखना की भारी-भरकम बात भी आसन और रोचक लगे, और उसे करने के लिए प्रेरणा मिले, मतलब बात सुनकर फिर कदम मजिल पर ही रुकें, यही विज्ञापन की कला है.
विज्ञापन हमारा वो दोस्त है जो हमें मजे मजे में जीना सिखाता है. बोरियत नाम की चीज उसके जिस्म में नहीं है. नकारात्मक, निराशा, समस्या जैसे शब्द उसकी डिक्शनरी में नहीं है. हमेशा किसी विषय या समस्या को लेकर समाधान लिए खड़ा रहता है. हर अँधेरे की रौशनी है इसके पास. हमेशा आपको बेहतरी के सपने दिखता है.
आरामपसंद आलोचक इसे लालच भी कहते हैं लेकिन मियां जीवन में सपने नहीं होंगे तो हम कैसे आगे बढ़ेंगे. ज़िन्दगी रुक जाने का नाम नहीं है. जहाँ रुके वहीं ख़त्म हो जाती है.

जनसंपर्क हमें असली संवाद की कला सिखाता है. रिश्ते बनाने के लिए हमें कैसे संवाद करना है उन्हें बनाये रखने के लिए कैसे संवाद की डोर जुडी रहनी चाहिए और मुश्किल के वक्त कैसे संवाद रिश्ते को जोड़े रहता है इसे जनसंपर्क से बेहतर कोई नहीं सिखा सकता.. संवाद से मानव जीवन में कितने रस भरे जा सकते है, ये जनसंपर्क की कलाओं से सीखिए. हमारे रोजमर्रा की आदतों में संवाद का स्वरुप थोडा सा बेहतर कर लिया जाये तो ज़िन्दगी में रौनक आ जाती है. ज़िन्दगी जिंदा सी होने लगती है.
कुछ लोग इसे चापलूसी या चटुकारिता कहते हैं, वे वो लोग हैं जो कभी इसकी परिभाषा भी नहीं पढ़े हैं. जनसंपर्क में पहली शर्त ही ईमानदारी है, फिर संवाद की निरंतरता.. अगर दुसरे को ज्यादा महत्त्व देने को आप चापलूसी कहते हैं तो फिर ऐसा कोई इंसान बताइए जो किसी को सम्मान न देता हो और लोग उससे जुड़े हों..
संवाद में जुड़ाव हमेशा ईगो को तोडकर ही आता है. अभिमान रिश्ते की सबसे बड़ी रूकावट है, जनसंपर्क इसे खत्म कर देता है. और  भी सावधानियां हैं जिन्हें हमें मानव होने के नाते ध्यान में रखना चाहिए लेकिन हम अपनी धुन में नहीं रखते..

इस क्षेत्र को मैं दिल से मोहब्बत करता हूँ और इसका अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करूँगा.