इबादत के रंग : : हाजी मलंग
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मुम्बई के किनारे लगे कल्याण से एक घण्टे की दूरी पे अल्लाह ने जन्नत बसाई है.. कभी वक़्त हो तो भीगने और झूमने चले जाइए.. हम तो नाम सुने और खिंचे से चले गए.. एक फकीर ने कहा कि बाबा मलंग ने तुम्हें ऊपर तक चढ़ा ही लिया, उनका मन होगा तुमसे मिलने को...
भ्रमण उमंग : : हाजी मलंग
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शनिवार की शाम... साथियों के संग जब घूमने की बात ही चली तो ज़िक्र हाजी मलंग का हो उठा.. हाजी अली देखा था हाजी मांग का नाम सुना था.. सबकी हामी एकसाथ हुई और चल पड़े.. कल्याण पहुंचते-पहुंचते 6.30 बज गए, वहां से मलंगगढ़ के लिए बस नहीं मिली टेक्सी को एक्स्ट्रा पैसे देके निकल पड़े..
मलंगगढ़ से करीब तीन किलोमीटर की चढ़ाई है हाजी मलंग बाबा की दरगाह तक पहुंचने के लिए.. लगभग तीन हज़ार सीढियां चढ़नी होती हैं.. शुरू में चढ़े तो थकान के साथ भीगने से बचने की जद्दोजहद रही. लेकिन एकबार पूरे भीगे तो फिर न थकान हुई और न बचने की कोई कोशिश... आधे रास्ते में मजार पड़ती है वहां नमाज के बाद एक चाचा की दुकान पे पेटभर के खाया और हम ऊपर साढ़े दस बजे पहुँचे.. देरी से पहुंचने की अच्छी बात ये रही कि लौटने का विकल्प धूमिल होता गया.. और एक रात पहाड़ पे सोने को मिल गयी..
जन्नत के रंग : : हाजी मलंग
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ये अजूबे से कम नहीं है कि तीन किलोमीटर ऊंचे पहाड़ की चोटी पे पूरा गांव बसा है.. और आज से नहीं सदियों से लोग रह रहे हैं.. पानी के कुएं हैं और खाने की कमाई यात्रियों से निकलती है.. वहां इतना कुछ है कि अचम्भा होता ही कि इसे सीढ़ियों से कैसे ऊपर चढा के लाया गया होगा..
सुबह आँख खुली तो ज़िन्दगी की सबसे खूबसूरत सुबह ने झरनों से स्वागत किया.. सबसे पहले बाबा की दरगाह में जी भर के बैठे.. हम पहाड़ी के आंचल में बादलों की फुहारों के बीच थे.. ऊपर उमड़ रहे बादलों के नीचे हम घूम रहे थे.. पहाड़ी के किनारे पहुंचकर नीचे झाँके तो नज़ारे आँखो में समा नहीं पाए तो झट से मोबाइल में कैद करने लगे.. बूंदें झर रही थीं और हम हरी घास पर फिसलते कूदते जा रहे थे.. ऊँचाई से शहर डराता नहीं है खूबसूरत लगता है...
आने का मन नहीं कर रहा था, मगर लौटते हुए सीढ़ियों से रात को नज़ारे न देख पाने के मलाल ने लौटने में दिलचस्पी जगा दी.. और फिर लौटते हुए सीढियां हमें सरका रहीं थीं, रास्ते में एक रास्ते ने मोड़ दिया और हम झरने में मुंह धोने चले गए... साथियों की नौंकझौंक भजिया पाव जैसी रही..! तीन हज़ार सीढियां लौटते हुए और शानदार लग रही थीं.। जहाँ भी रास्ते ने नोंक छोड़ी वहां जब मन किया मुड़ लिए..
पिछली शाम को गए आज शाम लौटे...
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मुम्बई के किनारे लगे कल्याण से एक घण्टे की दूरी पे अल्लाह ने जन्नत बसाई है.. कभी वक़्त हो तो भीगने और झूमने चले जाइए.. हम तो नाम सुने और खिंचे से चले गए.. एक फकीर ने कहा कि बाबा मलंग ने तुम्हें ऊपर तक चढ़ा ही लिया, उनका मन होगा तुमसे मिलने को...
भ्रमण उमंग : : हाजी मलंग
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शनिवार की शाम... साथियों के संग जब घूमने की बात ही चली तो ज़िक्र हाजी मलंग का हो उठा.. हाजी अली देखा था हाजी मांग का नाम सुना था.. सबकी हामी एकसाथ हुई और चल पड़े.. कल्याण पहुंचते-पहुंचते 6.30 बज गए, वहां से मलंगगढ़ के लिए बस नहीं मिली टेक्सी को एक्स्ट्रा पैसे देके निकल पड़े..
मलंगगढ़ से करीब तीन किलोमीटर की चढ़ाई है हाजी मलंग बाबा की दरगाह तक पहुंचने के लिए.. लगभग तीन हज़ार सीढियां चढ़नी होती हैं.. शुरू में चढ़े तो थकान के साथ भीगने से बचने की जद्दोजहद रही. लेकिन एकबार पूरे भीगे तो फिर न थकान हुई और न बचने की कोई कोशिश... आधे रास्ते में मजार पड़ती है वहां नमाज के बाद एक चाचा की दुकान पे पेटभर के खाया और हम ऊपर साढ़े दस बजे पहुँचे.. देरी से पहुंचने की अच्छी बात ये रही कि लौटने का विकल्प धूमिल होता गया.. और एक रात पहाड़ पे सोने को मिल गयी..
जन्नत के रंग : : हाजी मलंग
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ये अजूबे से कम नहीं है कि तीन किलोमीटर ऊंचे पहाड़ की चोटी पे पूरा गांव बसा है.. और आज से नहीं सदियों से लोग रह रहे हैं.. पानी के कुएं हैं और खाने की कमाई यात्रियों से निकलती है.. वहां इतना कुछ है कि अचम्भा होता ही कि इसे सीढ़ियों से कैसे ऊपर चढा के लाया गया होगा..
सुबह आँख खुली तो ज़िन्दगी की सबसे खूबसूरत सुबह ने झरनों से स्वागत किया.. सबसे पहले बाबा की दरगाह में जी भर के बैठे.. हम पहाड़ी के आंचल में बादलों की फुहारों के बीच थे.. ऊपर उमड़ रहे बादलों के नीचे हम घूम रहे थे.. पहाड़ी के किनारे पहुंचकर नीचे झाँके तो नज़ारे आँखो में समा नहीं पाए तो झट से मोबाइल में कैद करने लगे.. बूंदें झर रही थीं और हम हरी घास पर फिसलते कूदते जा रहे थे.. ऊँचाई से शहर डराता नहीं है खूबसूरत लगता है...
आने का मन नहीं कर रहा था, मगर लौटते हुए सीढ़ियों से रात को नज़ारे न देख पाने के मलाल ने लौटने में दिलचस्पी जगा दी.. और फिर लौटते हुए सीढियां हमें सरका रहीं थीं, रास्ते में एक रास्ते ने मोड़ दिया और हम झरने में मुंह धोने चले गए... साथियों की नौंकझौंक भजिया पाव जैसी रही..! तीन हज़ार सीढियां लौटते हुए और शानदार लग रही थीं.। जहाँ भी रास्ते ने नोंक छोड़ी वहां जब मन किया मुड़ लिए..
पिछली शाम को गए आज शाम लौटे...