शनिवार, 26 अगस्त 2017

हाजी मलंग यात्रा

इबादत के रंग : : हाजी मलंग
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मुम्बई के किनारे लगे कल्याण से एक घण्टे की दूरी पे अल्लाह ने जन्नत बसाई है.. कभी वक़्त हो तो भीगने और झूमने चले जाइए.. हम तो नाम सुने और खिंचे से चले गए.. एक फकीर ने कहा कि बाबा मलंग ने तुम्हें ऊपर तक चढ़ा ही लिया, उनका मन होगा तुमसे मिलने को...

भ्रमण उमंग : : हाजी मलंग
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शनिवार की शाम... साथियों के संग जब घूमने की बात ही चली तो ज़िक्र हाजी मलंग का हो उठा.. हाजी अली देखा था हाजी मांग का नाम सुना था.. सबकी हामी एकसाथ हुई और चल पड़े.. कल्याण पहुंचते-पहुंचते 6.30 बज गए, वहां से मलंगगढ़ के लिए बस नहीं मिली टेक्सी को एक्स्ट्रा पैसे देके निकल पड़े.. 
मलंगगढ़ से करीब तीन किलोमीटर की चढ़ाई है हाजी मलंग बाबा की दरगाह तक पहुंचने के लिए.. लगभग तीन हज़ार सीढियां चढ़नी होती हैं.. शुरू में चढ़े तो थकान के साथ भीगने से बचने की जद्दोजहद रही. लेकिन एकबार पूरे भीगे तो फिर न थकान हुई और न बचने की कोई कोशिश... आधे रास्ते में मजार पड़ती है वहां नमाज के बाद एक चाचा की दुकान पे पेटभर के खाया और हम ऊपर साढ़े दस बजे पहुँचे.. देरी से पहुंचने की अच्छी बात ये रही कि लौटने का विकल्प धूमिल होता गया.. और एक रात पहाड़ पे सोने को मिल गयी..
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जन्नत के रंग : : हाजी मलंग 
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ये अजूबे से कम नहीं है कि तीन किलोमीटर ऊंचे पहाड़ की चोटी पे पूरा गांव बसा है.. और आज से नहीं सदियों से लोग रह रहे हैं.. पानी के कुएं हैं और खाने की कमाई यात्रियों से निकलती है.. वहां इतना कुछ है कि अचम्भा होता ही कि इसे सीढ़ियों से कैसे ऊपर चढा के लाया गया होगा..
सुबह आँख खुली तो ज़िन्दगी की सबसे खूबसूरत सुबह ने झरनों से स्वागत किया.. सबसे पहले बाबा की दरगाह में जी भर के बैठे.. हम पहाड़ी के आंचल में बादलों की फुहारों के बीच थे.. ऊपर उमड़ रहे बादलों के नीचे हम घूम रहे थे.. पहाड़ी के किनारे पहुंचकर नीचे झाँके तो नज़ारे आँखो में समा नहीं पाए तो झट से मोबाइल में कैद करने लगे.. बूंदें झर रही थीं और हम हरी घास पर फिसलते कूदते जा रहे थे.. ऊँचाई से शहर डराता नहीं है खूबसूरत लगता है...
आने का मन नहीं कर रहा था, मगर लौटते हुए सीढ़ियों से रात को नज़ारे न देख पाने के मलाल ने लौटने में दिलचस्पी जगा दी.. और फिर लौटते हुए सीढियां हमें सरका रहीं थीं, रास्ते में एक रास्ते ने मोड़ दिया और हम झरने में मुंह धोने चले गए... साथियों की नौंकझौंक भजिया पाव जैसी रही..! तीन हज़ार सीढियां लौटते हुए और शानदार लग रही थीं.। जहाँ भी रास्ते ने नोंक छोड़ी वहां जब मन किया मुड़ लिए..
पिछली शाम को गए आज शाम लौटे...

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गुरुवार, 3 अगस्त 2017

शायरी के आसमान से फिल्मों की दुनियां में मोहब्बत का शायर



आज शकील बदायूँनी का जन्मदिवस है। चौदह वर्ष की उम्र में ही शेर कहने वाले शायर शकील अहमद बदायूं में 3 अगस्त 1916 को पैदा हुए। उसके बाद वे लखनऊ में पढे-लिखे और देश के नामी शायरों में शामिल हो गए। दिल्ली में नौकरी करते हुए उन्होंने देशभर में अपने कलामों से लोगों के दिलों पर राज किया और फिर मुम्बई आकर फिल्मो में अमर गीतों की रचना की।
उनके बहुचर्चित गीत ‘चौदहवीं का चाँद’ के संबंध में एक वाकया है, जिसमें उनके इस गीत में उर्दू शायरी के व्याकरण के अनुसार गलती उजागर होती है।
निदा फाज़ली अपने संस्मरण में कहते हैं, एक बार वे ग्वालियर में उनसे मिले थे| शकील साहब मुशायरों में गर्म सूट और टाई पहनकर शिरकत करते थे। ख़ूबसूरती से संवरे हुए बाल और चेहरे की आभा से वे शायर से अधिक फ़िल्मी कलाकार नज़र आते थे | मुशायरा शुरू होने से पहले वे पंडाल में अपने प्रशंसकों को अपने ऑटोग्राफ से नवाज़ रहे थे। उनके होंठों की मुस्कराहट कलम की लिखावट का साथ दे रही थी। इस मुशायरे में ‘दाग़’ के अंतिम दिनों के प्रतिष्ठित मुकामी शायरों में हज़रत नातिक गुलावटी को भी नागपुर से बुलाया गया था लंबे पूरे पठानी जिस्म और दाढ़ी रोशन चेहरे के साथ वो जैसे ही पंडाल के अंदर घुसे सारे लोग सम्मान में खड़े हो गए | शकील इन बुज़ुर्ग के स्वभाव से शायद परिचित थे, वे उन्हें देखकर उनका एक लोकप्रिय शेर पढते हुए उनसे हाथ मिलाने के लिए आगे बढे:
वो आँख तो दिल लेने तक बस दिल की साथी होती है,
फिर लेकर रखना क्या जाने दिल लेती है और खोती है.
लेकिन मौलाना नातिक इस प्रशंसा स्तुति से खुश नहीं हुए, उनके माथे पर उनको देखते ही बल पड़ गए | वे अपने हाथ की छड़ी को उठा-उठाकर किसी स्कूल के उस्ताद की तरह बोले,
“बरखुरदार, मियां शकील! तुम्हारे तो पिता भी शायर थे और चचा मौलाना जिया-उल-कादरी भी उस्ताद शायर थे तुमसे तो छोटी-मोटी गलतियों की उम्मीद हमें नहीं थी पहले भी तुम्हें सुना-पढ़ा था मगर कुछ दिन पहले ऐसा महसूस हुआ कि तुम भी उन्हीं तरक्कीपसंदों में शामिल हो गए हो, जो रवायत और तहजीब के दुश्मन हैं | ”
मौलाना नातिक साहब भारी आवाज़ में बोल रहे थे। शकील इस तरह की आलोचना से घबरा गए पर वे बुजुर्गो का सम्मान करना जानते थे। वे सबके सामने अपनी आलोचना को मुस्कराहट से छिपाते हुए उनसे पूछने लगे,
“हज़रत आपकी शिकायत वाजिब है लेकिन मेहरबानी करके गलती की निशानदेही भी कर दें तो मुझे उसे सुधारने में सुविधा होगी”
उन्होंने कहा,
“बरखुरदार, आजकल तुम्हारा एक फ़िल्मी गीत रेडियो पर अक्सर सुनाई दे जाता है, उसे भी कभी-कभार मजबूरी में हमें सुनना पड़ता है और उसका पहला शेर यों है:

चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो,
जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो |

”मियां इन दोनों मिसरों का वज़न अलग-अलग है पहले मिसरे में तुम लगाकर यह दोष दूर किया जा सकता था | कोई और ऐसी गलती करता तो हम नहीं टोकते, मगर तुम हमारे दोस्त के लड़के हो, हमें अजीज़ भी हो इसलिए सूचित कर रहे हैं | बदायूं छोड़कर मुंबई में भले ही बस जाओ मगर बदायूं की विरासत का तो पालन करो |’
शकील अपनी सफाई में संगीत, शब्दों और उनकी पेचीदगिया बता रहे थे उनकी दलीलें काफी सूचनापूर्ण और उचित थीं, लेकिन मौलाना ‘नातिक’ ने इन सबके जवाब में सिर्फ इतना ही कहा- “मियां हमने जो “मुनीर शिकोहाबादी” और बाद में मिर्ज़ा दाग से जो सीखा है उसके मुताबिक़ तो यह गलती है और माफ करने लायक नहीं है | हम तो तुमसे यही कहेंगे, ऐसे पैसे से क्या फायदा जो रात-दिन फन की कुर्बानी मांगे |’
उस मुशायरे में नातिक साहब को शकील के बाद अपना कलाम पढ़ने की दावत दी गई थी उनके कलाम शुरू करने से पहले शकील ने खुद माइक पर आकर कहा था- ‘हज़रत नातिक इतिहास के जिंदा किरदार हैं | उनका कलाम पिछले कई नस्लों से ज़बान और बयान का जादू जगा रहा है, कला की बारीकियों को समझने का तरीका सीखा रहा है और मुझ जैसे साहित्य के नवागंतुकों का मार्गदर्शन कर रहा है | मेरी गुज़ारिश है आप उन्हें सम्मान से सुनें | ‘
शकील साहब के स्वभाव में उनके धार्मिक मूल्य थे | अपनी एक नज़्म ‘फिसीह उल मुल्क’ में दाग के हुज़ूर में उन्होंने “साइल देहलवी”, “बेखुद”, “सीमाब” और “नूह नार्वी” आदि का उल्लेख करते हुए दाग की कब्र से वादा भी किया था:
ये दाग, दाग की खातिर मिटा के छोड़ेंगे,
नए अदब को फ़साना बना के छोड़ेंगे |
शकील साहब का व्यक्तित्व बेहद चमकदार था, वे मुशायरों में किसी हीरो से कम नहीं लगते थे और कहा जाता है कि अपने साथ अपने शागिर्दों और प्रसंशकों भी मुशायरों में ले जाते रहे।

उन्होंने अपना पहला गीत फिल्मों में इतना शानदार लिखा कि नौशाद साहब उनके हमेशा के लिए मुरीद हो गए। वो गीत था:-
हम दिल का अफ़साना दुनियां को सुना देंगे हर दिल में मुहब्बत की आग लगा देंगे
शकील साहब के गीतों में ‘प्यार किया तो डरना क्या’ से लेकर ‘नन्हा मुन्हा राही हूँ’ तक एक लम्बी और दिल अज़ीज फेहरिश्त है, जिसे दुनियां सदियों तक याद रखेगी।‎