मंगलवार, 3 मार्च 2015

घर से दूर होली

आज होली का त्यौहार है, और मैं पिछले कई बार की तरह इस बार भी घर नही जा पाया। त्योहारों पर घर ना जाने का सिलसिला पिछले कुछ दिनों से निरंतर बना है, और ये सिलसिला न जाने कब आदत बन गया पता ही नही चला।  हर बार की तरह इस बार भी कोई खास कारन नहीं है न जाने का।  बल्कि मैं  खुद ही कोई न कोई अच्छा सा बहाना बना लेता हूँ. और एकाध पूछने वालों को वही पकड़ा देता हूँ. वैसे भी पूछने वालों की संख्या ज्यादा नहीं है.
            ज़िंदगी ने इस शहर में एक अरसा भी नहीं काटा, मगर न जाने कब ये शहर मेरे भीतर उतर गया. यहाँ की खुश्बू की पकड़  मुझे छोड़ती ही नहीं। जब भी गया हूँ इस शहर से सुकून से नहीं जा पाया हूँ. एक अजीब सी टीस हमेशा बसी रही है .
 हर बार इलाहबाद रेलवे स्टेशन छोड़ते वक़्त लगता है जैसे मैं अपना वजूद यहीं छोड़कर  रहा हूँ. और घर पहुँचते पहुँचते एक नया वजूद ओढ़ लेता हूँ. फिर वहाँ से मां के लाख मना करने के बाबजूद उस रूह को वहीं उतारकर चल देता हूँ.
इस बीच सफर में मैं किसी जगह के वजूद में  नहीं रहता.., एकदम कोरा सा बैठा रहता हूँ.

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