रविवार, 13 अक्टूबर 2013

आओ मारें अपने-अपने रावण को



प्रत्येक त्यौहार खुशियों के साथ साथ कुछ सीख और संदेश लेकर आता है. जिसमें उस त्यौहार को वर्तमान में मनाये जाने की सार्थकता निहित होती है. विजयादशमी का महापर्व बड़े हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है. दुर्भाग्यपूर्ण सत्य और तथ्य यह है कि हम देवी देवताओं के नाम का जाप हरदम करते रहते है, उनकी पूजा अर्चना रोज करते हैं, लेकिन उनके पराक्रम, धैर्य, संकल्पबद्धता और परिश्रम की तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं देते. हम उनके जीवन से कुछ सीखने की कोशिश नहीं करते.हम नवरात्री के अवसर पर मातारानी का खूब गुणगान करते हैं, उनकी जीवन कथाएं, जागरण करवाते हैं. व्रत रहते हैं, मगर क्या हम देवी माँ के जीवन से कुछ सीख पाते हैं? क्या नौ दिन तक व्रत रखने के बाद हमारे व्यवहार में, हमारे व्यक्तित्व में कोई सकारात्मक परिवर्तन आया है.? या फिर हम सिर्फ भक्त बन कर रह गए.?  शहर में अनेक स्थानों पर रामलीलाओं का मंचन होता है, शहर भर में बड़ी धूमधाम से राम बारात निकाली जाती है, हम जगह जगह रावण के पुतले दहन करते हैं. और खुशियाँ मनाते हैं.मगर क्या हम अपने भीतर बैठे रावण को दहन कर पाते हैं. अगर नहीं तो व्यर्थ है ये विजयादशमी का पर्व मनाना..  इसलिए इस पावन पर्व पर अपने भीतर के रावण को खोजिए ....और उसे पहचानकर बाहर निकालिए...किसी एक बुरी आदत को आज हमेशा के लिए खत्म कर दीजिए.....
क्योंकि आपके मन के भीतर विराजमान असत्य रूपी रावण हरपल आपके मन को नकारात्मक ऊर्जा से भरता रहेगा. जिससे आपका नजरिया भी नकारात्मक हो जायेगा. और फिर आप सत्य को नहीं पहचान पाएंगे. इस दुनिया की सभी खूबसूरत चीजें आपको बदसूरत नजर आएँगी. हर खुशी में भी आपके भीतर बैठा असत्य दुखी होने का कोई न कोई बहाना ढूँढ ही लेगा. और आपको लगेगा कि आप दुनिया के सबसे दुखी इंसान हैं. आज ज्यादातर लोग इसी समस्या से ग्रस्त हैं, जबकि यह कोई समस्या नहीं है, बल्कि आपके भीतर का रावण आपके मन को नकारात्मकता से भरे हुए है. हर चीज में कमी निकलना, कभी संतुष्ट न होना, कुछ पा लेने पर भी मायूस रहना...... और यही नकारात्मक उर्जा आपको मार्ग से भटका देती है. यह भीतर बैठा रावण कैसे हमारे दिलो-दिमाग को अपने नियंत्रण में ले लेता है और हम सब उसके इशारों पर चलते हैं. साथ ही हमें लगता है कि जो हम कर रहे हैं वही सही है.
धीरे-धीरे नकारात्मकता का प्रभाव इतना गहरा जाता है,कि हमें अपने चारों ओर अंधकार नज़र आता है. लगता है इस दुनियां में सब बेकार है, केवल दुःख ही दुःख हैं,,,और फिर निराशा, हताशा, संकीर्ण मानसिकता, नकारात्मक सोच और अतृप्त इच्छाएँ हमारी रंगीन ज़िंदगी के सरे रंग छीनकर काला रंग भर देती हैं, घोर अँधेरा.....हमारे मन में हरवक्त चलता बेवजह तनाव बहुत तरह के डर पैदा कर देता है, जो वास्तव में होते ही नही है.हमारे अधिकांश डर बिलकुल झूठ होते हैं.विज्ञान कहता है कि मनुष्य जन्म से मात्र दो चीजों से डरता है- आवाज़ और ऊंचाई. इसके अतिरिक्त कोई भी डर उसका स्वाभाविक नहीं होता, ये सभी डर हमने अपने आप पैदा किये हैं. मनोविज्ञान के बहुत से शोध कहते हैं कि मनुष्य जिन बातों के लिए तनाव लेता है उनमें से निन्यानवे प्रतिशत कभी घटित ही नहीं होती. अब आप ही सोचिये कि आपने टेंशन के रूप में अच्छी भली जिंदगी में कितना कचरा जमा किया हुआ है. तो अब आप तय करिये कि रावण के पुतले को आग लगाकर एक दिन खुश होना चाहते हैं या अपने भीतर छुपे वास्तविक रावण को खत्म करके जीवन भर खुश रहना चाहते हैं.? फैसला आपके हाथ में है.
वैसे ज्यादातर लोग चाहते तो हैं कि वे अच्छे रास्तों पर चलें, लेकिन हम ऐसा क्यों नहीं कर पाते.? क्योंकि जब देखते हैं कि बाकि दुनिया शार्टकट के जरिये कामयाब हो रही है तो हम क्यों मेहनत करें. जब देखते हैं कि सब स्वार्थी हैं तो हम क्यों भलाई करते रहें ? यही समय है समझने का कि मन में राम हैं या रावण.?

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