बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

रात चाँद और मैं !

    रात चाँद और मैं !

रे चांद ! क्यों जागते रहते हो सूनी रातों में …. अकेले 
जलते रहते हो हल्की आग में , मद्धिम-मद्धिम …
इतनी तपिश कि सिर्फ उजाला हो… कोई झुलसे न। 
अरे! जलता तो सूरज भी है , मगर  वो अपने साथ इस दुनियां को भी जलाता है। 
और तुम , खुद जलते हो और दुनिया को सुलाते हो। 
हे चाँद ! तुम मुझे कोई पहरेदार लगते हो … 
सारी दुनिया के पहरेदार …
कभी-कभी तुम मुझे वो दिया की ढिबरी लगते हो ,,,,
जिसे मेरी माँ सोने से पहले अक्सर बुझाना भूल जाती थी …. 
और वो मासूम सा चिराग रात भर टिम-टिमाता रहता था। 
. .  
….रे चाँद ! मैं भी कई रातों से तुम्हारे साथ जाग  रहा हूँ ,
और मेरा 'हर दिन' सूरज की आग में जल जाता है। 
   तुम तो कई सदियों से रातभर जागते  रहे हो …
'तुम्हारा दिन' कैसा गुजरता है ??????????????

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