सोमवार, 7 दिसंबर 2015

शोर के सन्नाटे में

एकतरफ जहाँ देश की राजधानी, हवा में घुल रहे जहर से जूझ रही है, वहीँ बढते शोर ने लोगों के कान खड़े कर दिए हैं. गाड़ियों के होर्न, मशीनों की खटर-पटर और लाउडस्पीकरों का शोर लोगों को बहरा बना रहा है. इसका सबसे ज्यादा असर बेक़सूर यातायात पुलिसकर्मियों पर पड रहा है, जो चौराहों पर खड़े गाड़ियों के शोर मे घंटों ड्यूटी करते रहते हैं, जिससे उनकी सुनने की क्षमता घटती जा रही है. हाल ही मे छपी एक रिपोर्ट के अनुसार दस मे से चार यातायात पुलिसकर्मी ऊँचा सुनते हैं.


शोर से भनभनाते शहरों मे पक्षियों ने भी अपने बसेरे छोड़ दिए हैं. गौरैया जैसे पक्षी तो नज़र भी नहीं आते, कबूतर किसी रेलवे स्टेशन की टिनशेड मे डरे-सहमे छुपते-छुपते घटते जा रहे हैं. मगर इस भागदौड में ध्यान कौन देता है. कहीं न कहीं हम आदी होते जा रहे हैं. लेकिन ध्यान रखना कि हम यूँ ही बेतहाशा दौड मे अगर इस खतरे को अभी नहीं सुन पाए तो एक दिन ये शोर हमें सुनने के काबिल नहीं छोडेगा. 

यह लेख बिजनेस स्टेंडर्ड में प्रकाशित हो चुका है.

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