नज्मों के गुलज़ार
- कुमार विनय
"मैं नज़्म रचता हूँ। उसके बाद उन नज्मों को सामने बिठाकर उनसे बातें करता हूँ।
फिर कहता हूँ कि मैंने बनाई हैं ये नज्में ….
तब सारी नज्में खिलखिलाकर मुझसे कहती हैं,- अरे! भले मानस हमने तुझे रचा है, हमने तुम्हे कवि-शायर बनाया है। मैनें शायरी नहीं रची, नज्मों ने मुझे रचा है… " - गुलज़ार
यही खूबी है उस शख्सियत की, कि इतनी ऊँचाइयों पर पहुँचने के बाद भी वही सहजता, कोई मुखोटा नहीं। अनगिनत नज्मों, कविताओं, कहानियों, और ग़ज़लों की सम्रद्ध दुनिया अपने में समोए गुलज़ार अपना सूफियाना रंग लिए लोगों की साँसों में बसते हैं। आज गुलज़ार साहब का 77 वां जन्मदिन है। जन्मदिन के बहाने आकाश की तस्वीर को एक छोटे से केनवास पर उतारने का मेरा बचपना प्रयास। एक समंदर सी अथाह गहरी ज़िन्दगी की कुछ बूंदे जो मुझ पर लहरों के साथ सौभाग्य से पड़ गयीं ,उन्हीं चंद एहसासों को शब्द देने की कोशिश की है। गुलज़ार साहब को मैंने पहली बार जब उनके कहानी संकलन 'रवीपार" में पढ़ा तो एक अजीब सी धुन लग गयी। और फिर नज्मे, ग़ज़लें, कवितायेँ ,फिल्मों की पटकथा ,जो भी जहाँ से संभव हो सका बहुत ह्रदय से पढ़ा।
गुलज़ार का पूरा नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा है। गुलज़ार का जन्म अविभाजित भारत के झेलम जिला के दीना गाँव में, जो अब पाकिस्तान में है, १८ अगस्त १९३६ को हुआ था। गुलज़ार अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान हैं। उनकी माँ उन्हें बचपन मे ही छोङ कर चल बसीं। माँ के आँचल की छाँव और पिता का दुलार भी नहीं मिला। वह नौ भाई-बहन में चौथे नंबर पर थे। बंट्वारे के बाद उनका परिवार अमृतसर आकर बस गया, वहीं गुलज़ार साहब मुंबई चले गये।
अपने संघर्ष के दिनों में एक मोटर गैराज में काम करने से लेकर हिंदी सिनेमा के दिग्गज निर्देशकों के साथ काम करने तक के सफ़र में गुलज़ार साहब ने ज़िन्दगी करीब से देखा है,,,,
"अपने ही साँसों का कैदी
रेशम का यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगा""
जैसे जैसे हम इन नज्मों की परतों को एक एक कर अलग अलग करते हैं वैसे वैसे इस शायर का जीवन के गहनतम स्टार तक पहुंचा हुआ ऐसा अवसादी मन जज़्बात के साथ खिलाता है। ….
एक अकेला इस शहर में……
जीने की वजह तो कोई नही
मरने का बहाना ढूंढता है….
एक और खास चीज है, जो इस शायर की कविता का पर्याय बन गयी है। ये गुलज़ार ही है, जिनकी कविताओं में प्रकृति कितनी खूबसूरती से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है.गुलज़ार की कविताओं में प्राकृतिक प्रतीकों की भरमार रही है चाहे वह चाँद की उपस्थिति रही हो या फिर सूरज तारे बारिश पतझड़ दिन रात शाम नदी बर्फ समुद्र धुंध हवा कुछ भी हो सकती है जो अपनी खूबसूरती गुलज़ार की कविताओं में बिखेरते हैं।
बेसबब मुस्कुरा रहा है चाँद,
कोई साजिश छुपा रहा है चाँद … "
"फूलों की तरह लैब खोल कभी
खुशबू की जबान में बोल कभी "
"हवा के सींग न पकड़ो, खदेड़ देती हैं
जमीन से पेड़ों के टाँके उधेड़ देती हैं …"
और भी ढेरों खूबसूरत नज्में आपके दिल को गुनागुनायेंगी।
गुलज़ार साहब राखी के साथ प्रेम बंधनों में बंधे,और एक पति और पिता के रिश्तों में घुल गए। लेकिन ये रिश्ता ज्यादा दिनों तक चल नही सका और आपसी मतभेद के बाद दोनों अलग अलग रहते है मगर अभी तलाक़ नहीं हुआ है। बचपन में माँ के गुजर जाने के बाद जीवनसाथी के विरह तक गलज़ार ने रिश्तों की मार्मिकता देखी है और इसीलिए उन्होंने अपनी नज्मों में रिश्तों की मासूमियत को अद्भुत तरीके से व्यक्त किया है
"हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख से लम्हे नहीं जोड़ा करते। "
या फिर ….
"मुझको भी तरकीब सिखा कोई, यार जुलाहे……
मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें साफ़ नज़र आती हैं, मेरे यार जुलाहे"
और आख़िरकार वे कहते हैं।
"आओ ! सारे पहन लें आईने
सारे देखेंगे अपने ही चेहरे……
प्रेम में उस अनसुनी आवाज़ को, जो बोलना नहीं जानती गुलज़ार बखूबी सुन पाए हैं। "सांस में तेरी सांस मिली तो मुझे सांस आयी….
जीवन की वास्तविकताओं से गुजरते हुए संघर्ष के क्षण गुलज़ार की कविताओं में ज़िन्दगी की रूमानियत के साथ म्रत्यु जैसे शांत पद में भी संवेदनाएं भर गए हैं।
क्या पता कब, खान मारेगी
बस, की मैं ज़िन्दगी से डरता हूँ
मौत का क्या है, एक बार मारेगी।
गुलज़ार हमेशा समय के साथ लिखते रहे हैं। …वे कहते हैं
"चाँद जितनी शक्लें बदलेगा, मैं भी उतना ही बदल बदल कर लिखता रहूँगा। ……. "