सोमवार, 23 दिसंबर 2013

तुम पर कविता लिखना

एक दौर गुजर गया है ..
   एक साथ पढते-पढते 
और अब मैंने बंद कर दी  हैं सारी किताबें 
सोचा है इस बार, 
             मनोविज्ञान नहीं 
बस मन पढ़ लूं तुम्हारा ....
अब तक पढ़े हैं, तुम्हारे लिखे हुए अक्षर ...
इस बार पढ़ लूं ,  जिसे अक्सर लिखते -लिखते रुक गई हो तुम .|
खूब हुई है कहासुनी ... 
  इसबार सुन लूं 'अनकही '...|
ताकि जान सकूं 'ना ' में छुपी 'हाँ' को ,
गुस्से में दबे प्यार को ,
और खुद्दारी में समाई प्यास को ......

क्योंकि, तुम पर कविता लिखना इतना आसान तो नहीं है |

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

'"अजीब ख्वाहिश "

तुम्हारे होने से दुनियाँ खूबसूरत लगती है .
तुम्हारी आवाज़ से तन्हाई गुनगुनाती है |
'चाँद कहीं आसपास ही होता है,...
               जब तुम होती हो .
आसपास ही बिखर जाती है चाँदनी ...
और हाँ ! मैंने समेटकर रख ली है वही चाँदनी,
उसे खर्च करूँगा बड़ी कंजूसी से ......
हर रात को जब अँधेरा ज्यादा होगा और नींद नहीं आयेगी |
तब नहीं करूँगा तुम्हें परेशान  msg या call से ..
नाराजगी नहीं है मगर 
..नहीं चाहता इस मर्ज़ की  दवा ,,,
उस तड़प को जी लेना चाहता हूँ .|
अजीब पागलपन है ना ?...
मगर,    इस बार तुम्हारी यादों को जीना चाहता हूँ | .
गैरमौजूदगी में, तुम्हें जी भर के महसूस कर लेना चाहता हूँ ..|
देखना चाहता हूँ कि - 'मुझमें कितनी गहराई तक उतर गई हो तुम....
इस बार मापना चाहता हूँ वो रिक्तता (खालीपन). जिसे तुम छोड़ जाती हो...
     हर बार,   छुट्टियों में....! 
                                                    - "विनय "

रविवार, 13 अक्टूबर 2013

‘‘असत्य पर सत्य की विजय का पर्व – विजयादशमी’’



 
भारत एक समृद्ध संस्कृति और परम्पराओं का देश है. और उन्हीं परम्पराओं और संस्कृति के निर्वहन के लिए यहाँ अनेक त्यौहार मनाये जाते हैं. वैसे तो इन त्योहारों के मनाये जाने का सीधा सम्बन्ध खुशियाँ मनाने से है, मगर साथ ही साथ प्रत्येक त्यौहार अपने साथ कुछ सीख और सन्देश  लिए आता है, जिसमे वर्त्तमान समय में उसके मनाये जाने की सार्थकता निहित होती है.
                   इन्हीं त्योहारों में से एक महापर्व आज हम मना रहे है- विजयादशमी का पर्व यानी  दशहरा. जैसा कि सब जानते हैं कि त्रेता युग में दशमी के दिन भगवान श्री राम ने पापी रावण का वध कर इस पृथ्वी से पाप का नाश किया था. और अच्छाई कि बुराई पर और असत्य पर सत्य कि विजय हुई, तब से यह पर्व मनाया जाता है. आज इस पर्व के मनाये जाने की सार्थकता पर गौर करने की आवश्यकता है. आज असत्य खान है और उस पर सत्य की कैसे विजय हो, यही इस पर्व को मनाये जाने का उद्देश्य होगा. तो आइये गौर करते हैं -
रावण एक वेदविद ब्राह्मण था. ज्ञानी और शक्तिशाली था , फिर भी वह राम के हाथों मारा गया, क्योंकि उसने अपने ज्ञान और शक्ति का दुरूपयोग किया . रावण भगवान शिव का परम भक्त था, उसकी तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने उसे अपार शक्ति और अमर रहने का वरदान दिया था, मगर उसने अपनी भक्ति को स्वार्थ हित में प्रयोग किया .
रावण ने सबसे बड़ा अपराध यह किया कि उसने सीता का हरण किया था. सीता को अपने षणयंत्र में फंसाकर अपने साथ ले गया और कैद कर लिया. रावण ने एक स्त्री के साथ धोखा कर उसकी पवित्रता पर लांछन लगाने कि कोशिश की. जिसके दण्डस्वरूप भगवान श्री राम ने उसका वध किया
                 आज हर जगह स्त्रियों के साथ क्या हो रहा है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है. रावण से भी खतरनाक रावण पैदा हो रहे है.रावण ने तो सीता का अपहरण किया था और उसे महल में कैद रखा था, मगर आज के रावण स्त्रियों से किस हद तक गिरकर नीच हरकतें करते हैं, हम रोज ही हर अखबार की हेडलाइन में न चाहते हुए भी पढ़ लेते हैं. हर गली-चौराहे पर स्त्रियां खुद को असुरक्षित समझती हैं. ऐसे में इस पर्व की महत्ता आज के सन्दर्भ में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. हमें याद करना होगा कि रावण, जिसने एक स्त्री को गलत इरादे से छूने की कोशिश की थी, उसका अंत भगवान श्री राम ने इसी दिन किया था.
मगर आज हमें किसी व्यक्ति का वध करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि रावण होने का मतलब कोई व्यक्ति रावण नहीं है, बल्कि उसके विचार और भाव रावण हैं, उसकी सोच में रावण है,उसके नजरिये में रावण है. वह मानसिकता जो दूसरे की खुशी और तरक्की को देखकर जलन से भर जाती है, वहाँ रावण है, जो कहता है कि उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज्यादा सफ़ेद क्यों है. वह नजरिया रावण है जिसमें हर स्त्री भोग्य वस्तु समझी जाती है. जिसमे स्त्रियों को सम्मान और समानता की  दृष्टि  से नहीं देखा जाता है. उनकी भावनाओं में रावण है जो कुछ पैसों के लिए अपने देश और समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य भूल जाते हैं. उनके ज्ञान में रावण है जो पैसो कि खातिर अपने पद और प्रतिष्ठा का दुरूपयोग करते हैं. और वह असत्य रावण है, जिससे किसी से झूठ बोलकर अपना काम निकला जाता है. वे सोची समझी साजिशें जिनके तहत किसी मासूम को फंसाया जाता है. अब आप ही सोचिये इतने व्यक्ति अच्छी खासी संख्या में हैं. हर व्यक्ति में कहीं न कहीं रावण छुपा है.
      अतः किसी व्यक्ति को मार देने से रावण नहीं मर जायेगा बल्कि उसके बुरे विचारों को मारने कि आवश्यकता है. उसकी हीन भावना तथा संकीर्ण मानसिकता का सही ढंग से उपचार करने की  आवश्यकता है. व्यक्ति के नजरिये को बदलना होगा और मनोभाव में सदाचार की नैतिकताओं का प्रवाह करना होगा.
   ...........बेशक यह कहने जितना आसान नहीं है, मगर इतना जान लीजिए कि रावण का अंत निश्चित है आज नहीं तो कल....क्योंकि बुराई पर अच्छाई कि जीत तय है. मगर यह आज होगा तो बेहतर होगा क्योंकि रावण जब तक आपके भीतर जिंदा रहेगा, तब तक आपको अंदर से खोखला करता रहेगा. आपको और ज्यादा हीन और संकीर्ण बनाता रहेगा. आज बुराई पर अच्छाई की और असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है. आज कोशिश करिये और अपने भीतर के रावण को पहचानिये और कर दीजिए उसका वध.
रावण अपराधी होकर भी स्वंय को कभी अपराधी नहीं मानता था. उसके भीतर अपराध-बोध नहीं था, इसीलिए उसके भीतर सुधर कि प्रक्रिया संभव ही नहीं थी. अतः रावण अंत तक रावण ही बना रहा और इसी रूप में उसने जीवन के अंत को प्राप्त किया. मगर आप समय रहते अपने भीतर के रावण को इस दशहरा के पावन पर्व पर दहन कर दीजिए....और मनाइए असत्य पर सत्य कि विजय का पर्व- विजयादशमी .

आओ मारें अपने-अपने रावण को



प्रत्येक त्यौहार खुशियों के साथ साथ कुछ सीख और संदेश लेकर आता है. जिसमें उस त्यौहार को वर्तमान में मनाये जाने की सार्थकता निहित होती है. विजयादशमी का महापर्व बड़े हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है. दुर्भाग्यपूर्ण सत्य और तथ्य यह है कि हम देवी देवताओं के नाम का जाप हरदम करते रहते है, उनकी पूजा अर्चना रोज करते हैं, लेकिन उनके पराक्रम, धैर्य, संकल्पबद्धता और परिश्रम की तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं देते. हम उनके जीवन से कुछ सीखने की कोशिश नहीं करते.हम नवरात्री के अवसर पर मातारानी का खूब गुणगान करते हैं, उनकी जीवन कथाएं, जागरण करवाते हैं. व्रत रहते हैं, मगर क्या हम देवी माँ के जीवन से कुछ सीख पाते हैं? क्या नौ दिन तक व्रत रखने के बाद हमारे व्यवहार में, हमारे व्यक्तित्व में कोई सकारात्मक परिवर्तन आया है.? या फिर हम सिर्फ भक्त बन कर रह गए.?  शहर में अनेक स्थानों पर रामलीलाओं का मंचन होता है, शहर भर में बड़ी धूमधाम से राम बारात निकाली जाती है, हम जगह जगह रावण के पुतले दहन करते हैं. और खुशियाँ मनाते हैं.मगर क्या हम अपने भीतर बैठे रावण को दहन कर पाते हैं. अगर नहीं तो व्यर्थ है ये विजयादशमी का पर्व मनाना..  इसलिए इस पावन पर्व पर अपने भीतर के रावण को खोजिए ....और उसे पहचानकर बाहर निकालिए...किसी एक बुरी आदत को आज हमेशा के लिए खत्म कर दीजिए.....
क्योंकि आपके मन के भीतर विराजमान असत्य रूपी रावण हरपल आपके मन को नकारात्मक ऊर्जा से भरता रहेगा. जिससे आपका नजरिया भी नकारात्मक हो जायेगा. और फिर आप सत्य को नहीं पहचान पाएंगे. इस दुनिया की सभी खूबसूरत चीजें आपको बदसूरत नजर आएँगी. हर खुशी में भी आपके भीतर बैठा असत्य दुखी होने का कोई न कोई बहाना ढूँढ ही लेगा. और आपको लगेगा कि आप दुनिया के सबसे दुखी इंसान हैं. आज ज्यादातर लोग इसी समस्या से ग्रस्त हैं, जबकि यह कोई समस्या नहीं है, बल्कि आपके भीतर का रावण आपके मन को नकारात्मकता से भरे हुए है. हर चीज में कमी निकलना, कभी संतुष्ट न होना, कुछ पा लेने पर भी मायूस रहना...... और यही नकारात्मक उर्जा आपको मार्ग से भटका देती है. यह भीतर बैठा रावण कैसे हमारे दिलो-दिमाग को अपने नियंत्रण में ले लेता है और हम सब उसके इशारों पर चलते हैं. साथ ही हमें लगता है कि जो हम कर रहे हैं वही सही है.
धीरे-धीरे नकारात्मकता का प्रभाव इतना गहरा जाता है,कि हमें अपने चारों ओर अंधकार नज़र आता है. लगता है इस दुनियां में सब बेकार है, केवल दुःख ही दुःख हैं,,,और फिर निराशा, हताशा, संकीर्ण मानसिकता, नकारात्मक सोच और अतृप्त इच्छाएँ हमारी रंगीन ज़िंदगी के सरे रंग छीनकर काला रंग भर देती हैं, घोर अँधेरा.....हमारे मन में हरवक्त चलता बेवजह तनाव बहुत तरह के डर पैदा कर देता है, जो वास्तव में होते ही नही है.हमारे अधिकांश डर बिलकुल झूठ होते हैं.विज्ञान कहता है कि मनुष्य जन्म से मात्र दो चीजों से डरता है- आवाज़ और ऊंचाई. इसके अतिरिक्त कोई भी डर उसका स्वाभाविक नहीं होता, ये सभी डर हमने अपने आप पैदा किये हैं. मनोविज्ञान के बहुत से शोध कहते हैं कि मनुष्य जिन बातों के लिए तनाव लेता है उनमें से निन्यानवे प्रतिशत कभी घटित ही नहीं होती. अब आप ही सोचिये कि आपने टेंशन के रूप में अच्छी भली जिंदगी में कितना कचरा जमा किया हुआ है. तो अब आप तय करिये कि रावण के पुतले को आग लगाकर एक दिन खुश होना चाहते हैं या अपने भीतर छुपे वास्तविक रावण को खत्म करके जीवन भर खुश रहना चाहते हैं.? फैसला आपके हाथ में है.
वैसे ज्यादातर लोग चाहते तो हैं कि वे अच्छे रास्तों पर चलें, लेकिन हम ऐसा क्यों नहीं कर पाते.? क्योंकि जब देखते हैं कि बाकि दुनिया शार्टकट के जरिये कामयाब हो रही है तो हम क्यों मेहनत करें. जब देखते हैं कि सब स्वार्थी हैं तो हम क्यों भलाई करते रहें ? यही समय है समझने का कि मन में राम हैं या रावण.?

शनिवार, 5 अक्टूबर 2013

एक  बहादुर बच्ची के लिए …
बचपन में यूँ ही खेल -खेल में वह मां से पूछ बैठी थी कि  ''मां ये आसमान इतना छोटा क्यूँ है? '' और तब सबको  हँसी आयी थी उसकी बात पर ……, लेकिन जब उसने जीवन के अर्थ को तलाशना शुरू किया, और हज़ार ठोकरों से गिरकर संभालना शुरू किया तो अपनी क्षमताओं को सही -सही परख पाई  वो.… ।
और आज जब कोई मुश्किल  उसे नही रोक पाई और  सचमुच उड़ान भरने को जी चाहा …
तो उसे बचपन के उसी  सवाल की फिर याद आ गई कि '' ये आसमान इतना छोटा क्यूँ है ?''
…. और इस बार उसने आईने से कहा
'' जो देखनी हो मेरी उड़ान….
तो आसमान से कहो थोडा और ऊंचा  हो जाए.… '' 

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

रात चाँद और मैं !

    रात चाँद और मैं !

रे चांद ! क्यों जागते रहते हो सूनी रातों में …. अकेले 
जलते रहते हो हल्की आग में , मद्धिम-मद्धिम …
इतनी तपिश कि सिर्फ उजाला हो… कोई झुलसे न। 
अरे! जलता तो सूरज भी है , मगर  वो अपने साथ इस दुनियां को भी जलाता है। 
और तुम , खुद जलते हो और दुनिया को सुलाते हो। 
हे चाँद ! तुम मुझे कोई पहरेदार लगते हो … 
सारी दुनिया के पहरेदार …
कभी-कभी तुम मुझे वो दिया की ढिबरी लगते हो ,,,,
जिसे मेरी माँ सोने से पहले अक्सर बुझाना भूल जाती थी …. 
और वो मासूम सा चिराग रात भर टिम-टिमाता रहता था। 
. .  
….रे चाँद ! मैं भी कई रातों से तुम्हारे साथ जाग  रहा हूँ ,
और मेरा 'हर दिन' सूरज की आग में जल जाता है। 
   तुम तो कई सदियों से रातभर जागते  रहे हो …
'तुम्हारा दिन' कैसा गुजरता है ??????????????

बुधवार, 11 सितंबर 2013

उसने कभी भीख नहीं मांगी,
उसने तो हमेशा रोका है उस भूखे पेट वाली स्त्री को..
जो बढा देती है कटोरा, हर आते-जाते के सामने..
    पेट के लिए
 

ये जानते हुए भी कि कोई अनायास भी नहीं देखेगा..
जानबूझ कर बना देंगे उसे होते हुए भी न होने जैसा..
वो बीच चौराहे पर खडी नहीं दिखेगी किसी को भी .







और कभी-कभी वो कामयाब हो जाती  है खुद को रोकने में..
और धोती के एक पल्लू से पसीना पोंछने के बहाने छुपा लेती है अपना चेहरा ..
...............मगर, जब फिर पेट में कुछ दौड़ता है तो बैचेन हो जाती है..
.....लेकिन जैसे ही एक मासूम आवाज़ उसके कानों को चीरती है,
तो अचानक वो पेट वाली स्त्री छुडाकर खुद से हाथ,
  फैला देती है किसी के आगे.!

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

DEAR TEACHERS,

              एक चिटठा गुरु के नाम

                                               - कुमार विनय
जिनके नजरिए से हमें देखने की ताकत मिलती है। जिनके प्रशिक्षण से हमें सही और गलत फैसले लेने का विवेक मिलता है। जो अपनी कर्मठता बुद्धि ज्ञान से हमें भविष्य का श्रेष्ठ नागरिक बनाते है। जिनकी शिक्षा से हमें जीवन को सार्थक बनाने का तजुर्बा मिलता है……. ऐसे ब्रह्म तुल्य गुरुओं का आज शिक्षक दिवस पर वंदन और अभिनन्दन है।
 DEAR TEACHERS,
               हम अपनी आँखों में कुछ सपने लेकर आपके पास आते हैं, और न जाने कब हमारे सपने आपका लक्ष्य बन जाते हैं. आप हमें वो बनाना चाहते हैं जो हम बनना चाहते हैं। बचपने में हमने इतने सपने तो देख लिए पर ये नहीं पता था कि इन्हें हकीकत बनाना इतना आसान नहीं होता। मगर आप ही तो हमेशा सिर पर हाथ रखकर कह देते हो-"बेटा कुछ भी असंभव नहीं है, लगन से मेहनत करो, तुम जरूर सफल होगे। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।"
   सपने हम सजाते हैं…… और उन्हें हकीकत आप बनाते हैं।
  DEAR TEACHERS,
  चलना तो माँ-बाप ने सिखाया……मगर 
   हमारे ख्वावों को पंख दिए हैं आपने… जीतने को पूरा आसमां 
   हमारी जीत पर उछलते देखा है आपको  …

 हमारी हार पर अपनी उदासी छुपाये 
      हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है आपने 
 हमारी भावनाओं को शब्द दिए हैं आपने
हमें डांटने के बाद मायूस देखा है आपको…
जब हम अपने लक्ष्य से भटकते हैं और आप हमें सुधारने के लिए हमारी गलतियों पर डांट देते है या गुस्सा होते हैं तो हम बुरा मान जाते हैं। हमें लगता है कि आप हमारे प्रति कठोर हैं…
मगर हम बाद में जान पाते हैं कि उस दिन आपका लंच बॉक्स नहीं खुलता; आपके चेहरे पर साफ़ नजर आती हैं मायूसी की लकीरें,,,,तब हमें एहसास होता है कि हम से ज्यादा आप दुखी होते हैं।
  DEAR TEACHERS,
                 आज न तो माफ़ी मांगने का दिन है ,,,,,और न  डांट खाने का। आज आपसे आशीर्वाद लेने का दिन है। आज आपसे आशीर्वाद लेकर आपसे वादा करने का दिन है। हम आपसे वादा करते हैं आपके मार्गदर्शन में जीत लेंगे आसमान। … पूरे करेंगे अपने सपने और आपके लक्ष्य।
                                             आपके आज्ञाकारी शिष्य……

बुधवार, 28 अगस्त 2013

भरें जीवन में कृष्ण रंग


               भरें जीवन में कृष्ण रंग…. 

                                                                                                    - कुमार विनय     



 श्री कृष्ण एक सम्पूर्ण जीवन आदर्श हैं , एक ऐसा जीवन जिसमें हजारों रंग भरे हैं।आज जन्माष्टमी के पावन दिन भरें जीवन में कृष्ण रंग। श्री कृष्ण ईश्वर हैं पर उससे भी पहले एक सफल गुणवान और दिव्य मनुष्य हैं।


कृष्ण का जन्म कारगर में हुआ।, पले -पढ़े कहीं और… कभी माँ  का आँचल नहीं मिला।  बचपन में ही राक्षसों से जूझते रहे…. मगर उन्होंने जीवन के हर पल को कितनी खूबसूरती के साथ जिया। चाहे वो बचपन के माखन चुराने वाले नन्हें से कान्हां हों , या  फिर थोड़े बड़े हुए तो कंकड़ी से मटकी  फोड़ने वाले नटखट कन्हैया , गाय  चराने वाले गोपाल , इतनी कम उम्र में ही गोबर्धन उठाने वाले गिरधर गोपाल…अपनी मधुर बंसी से मोहित कर देने वाले मोहन …. . युवावस्था में गोपियों संग प्रेम की पवित्र  रासलीलाएं रचाने वाले रासबिहारी। फिर महाभारत की कमान संभाली और अर्जुन को जीवन के रहस्य देते भगवान श्री कृष्ण… एक सफल प्रजापालक द्वारिकाधीश… गरीब सुदामा के परम मित्र कनुआ। और फिर देह त्याग… एकदम अकेले ,,,,,एक व्याध के वाण से देह त्याग दी। जाते जाते दिखा गये कि हे ! दुनिया वालो , देखो! मैं भी तुम्हारी तरह एक इंसान हूँ और एक इंसान की तरह म्रत्यु के आगोश में जा रहा हूँ। सोचिये ज़िन्दगी ऐसी खूबसूरत हो तो इसके बारे में बात करते  वक्त किसका दिल नहीं खिल उठेगा।
मगर  दुर्भाग्यपूर्ण सत्य और तथ्य यह है की हम देवी -देवताओं के नाम का जाप हरदम करते रहते है।  हम महापुरुषों की महानता को पूजने लगते हैं। लेकिन  जीवन में झांककर अपने जीवन को संवारने की कोशिश नहीं करते। उनके जीवन के पराक्रम , धैर्य परिश्रम तथा जीवन शैली से कुछ सीखते नहीं हैं। पूजा अर्चना की प्रक्रिया में हमारे सीखने की प्रवृति शून्य अवस्था में हो जाती है। और इस तरह हम उस महान जीवन का एक भी रंग अपने जीवन में नहीं उतारते।
तो आओ ! जीवन जीना हम सीख लें , वो अंदाज जिससे जिंदगी खूबसूरत हो जाती है , खुशनुमा बन जाती है।
तो आओ ! कृष्ण से कुछ खुबसूरत रंग मांग लें और करें शुरुआत जीवन जीने की। आओ करें कृष्ण जैसा निश्छल प्रेम…बचाएं किसी द्रोपदी का चीर…. करें किसी अर्जुन का मार्गदर्शन… आओ याद करें किसी बचपन के मित्र सुदामा को.……प्यार से मांगो  जरा सा माखन अपनी मैया से…. यक़ीनन कृष्ण आज जन्म लेते ही मुस्कुरा उठेंगे।.
कितना कुछ बचा है सीखने के लिए , करने और आनंद उठाने की खातिर और हम हैं की तनावों से घिरे जा रहे हैं।  आज जन्माष्टमी के पावन दिन भरें जीवन में कृष्ण रंग।

कृष्ण जन्माष्टमी पर

              ताकि मुस्कुरा उठे कन्हैया

                                                                                                                        -  कुमार विनय
आ रहा है माखन चुराने 
कंकदिया से मटकी चटकाने 
ग्वाल वाल संग गे चराने 
गोपियों संग रस रचाने 
बंसी बजाने कदम्ब की छैयां 
वो नटखट , नटवर कृष्ण कन्हैया …. 
आओ कृष्ण के जीवन से रूबरू हो लें। फिर मौका मिला न मिला , आज कुछ रंग चुरा ले ऐसे जीवन से जिसमे हजारों रंग भरे हैं। और संवार ले अपना जीवन ,, करें एक नयी शुरुआत।

जीवन क्या है - सांस दर सांस…. उम्र के दिए हर दिन को परिस्थितियों के अनुसार जीते रहना। उन परिस्थितियों के साथ जिन्हें न तो हम पसंद करते हैं और न ही बदलना चाहते। बस जैसा है वैसा जिए जा रहे हैं।  अगर गौर करें तो इन्ही परिस्थितियों के साथ समझौते में हमारा मासूम बचपन कब अपनी मासूमियत खोकर एक गंभीर युवा बन जाता है , पता ही नहीं चलता। और फिर बाकी का जीवन उसी गंभीरता को गहरे रंग देने में निकल जाता है। जब एक उम्र बीत जाती है , तब हमें उस मासूम चेहरे के पीछे एक मासूम चेहरा सिसकता हुआ नज़र आता है , जिस की मासूमियत… चंचलता… और सादगी को नज़र अंदाज़ कर मुखोटा लगाये जीते रहे । … खाना -कमाना और मर जाना - कुछ साल के जीवन का लेखा-जोखा तो हो सकता है , ऐसी ज़िन्दगी किसी मायने में मुकम्मल नहीं होती।
खैर…. ज़िन्दगी को कैसे जिए की उसकी अर्थवत्ता बनी रहे ? हमारी सूरत सीरत और सोच कैसी हो ?
तो आओ ! कृष्ण से कुछ खुबसूरत रंग मांग लें और करें शुरुआत जीवन जीने की। आओ करें कृष्ण जैसा निश्छल प्रेम…बचाएं किसी द्रोपदी का चीर…. करें किसी अर्जुन का मार्गदर्शन… आओ याद करें किसी बचपन के मित्र सुदामा को.……प्यार से मांगो  जरा सा माखन अपनी मैया से….
और खुद में रोते उस मासूम बच्चे को हंसा दो…. वो हंसेगा और देखना - उसकी खिलखिलाहट से आपकी तकलीफ दूर भाग जाएगी और  यकायक फूट पड़ेगी मासूम सी मुस्कराहट….ऐसा यक़ीनन होगा। यक़ीनन कृष्ण आज जन्म लेते ही मुस्कुरा उठेंगे।
तो नयी शुरुआत मानते हुए गुलज़ार साहब के इस खूबसूरत शेर के साथ  संकल्प लीजिये। ….
  एक रोज ज़िन्दगी से रूबरू आ बैठे 
मेरा चेहरा देखकर ज़िन्दगी ने कहा -मैं तुम्हारी जुड़वां हूँ ,
मुझसे नाराज़ न हुआ करो…

बुधवार, 21 अगस्त 2013

अटूट रिश्तों की नाज़ुक डोर, राखी......

               अटूट रिश्तों की नाज़ुक डोर 
                                                     - कुमार विनय  
          राखी की नाज़ुक डोर के अटूट  बंधन को भाई बहन के रिश्ते तक  ही सीमित नही किया जा सकता।  राखी एक भाई  की कलाई में बंधने से पहले कई कलाइयों में बांध चुकी होती है।  भारत देश के गावों में रक्षाबंधन का त्यौहार जिस परम्परा से मनाया जाता है वह परम्परा राखी के रिश्तों को  एक असीमित आयाम दे जाती है। जिस परम्परा में भाई बहन के रिश्ते से भी इतर कुछ रिश्ते हैं,
 जिनसे राखी की नाज़ुक डोर बांधकर  रक्षा की गुहार लगाईं जाती है।         
            
रक्षाबंधन के दिन पूजा के बाद सबसे पहले  पुहनिओं (रक्षाबंधन से कुछ दिन पूर्व मिटटी के कुल्हड़ों में अनाज बोया जाता है , जिसे नियमित रूप से सुबह शाम जल अर्पित किया जाता है। जो त्यौहार के दिन तक एक एक उंगल तक उग आता है ,) को राखी बाँधी जाती है और उनका पूजन किया जाता है। मान्यता है कि  सबसे  बड़ी रक्षा हमारी अन्न से होती है जो हमें जीवन प्रदान करता है।
             जब मैं छोटा था और मेरी धुंधली स्मृतियों में याद है कि  मेरी अम्मा (दादी) घर के आँगन में खड़े विशाल पीपल के पेड़ को सबसे पहले राखी बांधती थीं, और फिर मेरे मोहल्ले की सारी स्त्रियाँ उसी पीपल के पेड़ को राखी बांधते हुए गीत गाया करती थीं उन  लोकगीतों में उस वृक्ष की आराधना करते हुए रक्षा की प्रार्थना की जाती थी। वह पीपल का पेड़ प्राकृतिक रक्षक है. 
                  एक और वाकया जो मुझे हैरान कर देता था की मेरी बुआ जी उन बैलों की जोड़ी को राखी बांधती थी जो हर रोज खेतों में जोते जाते थे। उस दिन बैलों को नहला-धुला  कर भरपेट चारे के साथ ही पूजा की नन्ही नन्हीं  पुड़ियाँ खिलाई जाती  थी। और शायद इसी से प्रेरणा लेकर घर के सारे नन्हे मुन्हे बच्चे दौड़ दौड़ कर बिल्ली को पकड़कर उसके गले में राखी बांध देते थे।  हमारे घर का शेरू कुत्ता भी उस दिन रंगीन नज़र आता था। दादा का शख्त फरमान रहता की आज कोई भी इन रक्षकों से तल्खी से पेश नही आएगा, आज इनसे रक्षा का वादा लेने का दिन है।
         जब मेरे घर रक्षाबंधन के दिन दादा बैलगाड़ी लेकर आये थे, तो माँ ने राखी बांधकर ही उसका पूजन किया था और कई सालों बाद जब पापा एक नयी साईकिल लेकर आये तो उस बैलगाड़ी वाली राखी का स्थान साईकिल ने ले लिया फिर कई वर्षों तक साईकिल की घंटी में राखी बांधी जाती रही।
                त्यौहार की शाम गाँव के कुए पर पूरे गाँव की स्त्रियाँ गीत गाती हुई इकठ्ठा होती थीं। रंगीन साड़ियों और सोलह श्रंगारों से सुसज्जित स्त्रियाँ हंसती खिलखिलाती कुए को राखी बांधती हैं। कुए को राखी बंधने का तरीका भी  दिलचस्प नहीं है। एक पीली मिटटी का ढेला लेकर उसे कुए के पानी से भिगोकर उस पर राखी बांध दी जाती है और उस कुए का किनारा पीली मिटटी के रंगीन ढेलों से भर जाता है, फिर सारी महिलाएं दादी जी के नेतृत्व में कुए के चरों ओर भैथ्कर घंटों मंगल गान करती हैं। वे अपने गीतों में प्रार्थना करती हैं कि "हे कूप! तुमने भोर में सूरज की चितवन से पहले ही हमारे  घड़ों  को अपने शीतल जल से भरा है, जिससे दिनभर हमे जीवन मिलता है और फिर अगली भोर हम तेरे किनारे आकर मटकियों की आहट  से तुझे जगा देती हैं। तुम हमें ऐसे ही जीवन देते रहना। "

रविवार, 18 अगस्त 2013

नज्मों के गुलज़ार


                नज्मों के गुलज़ार

                                                                                  -  कुमार विनय  

                                          

 "मैं नज़्म रचता हूँ। उसके बाद उन नज्मों को सामने बिठाकर उनसे बातें करता हूँ।
 फिर कहता हूँ कि मैंने बनाई  हैं ये नज्में ….
 तब सारी नज्में खिलखिलाकर मुझसे कहती हैं,- अरे! भले मानस हमने तुझे रचा है, हमने तुम्हे कवि-शायर बनाया है। मैनें शायरी नहीं रची, नज्मों ने मुझे रचा है… " - गुलज़ार
यही खूबी है उस शख्सियत की, कि  इतनी ऊँचाइयों पर पहुँचने के बाद भी वही सहजता, कोई मुखोटा नहीं। अनगिनत नज्मों, कविताओं, कहानियों, और ग़ज़लों की सम्रद्ध दुनिया अपने में समोए गुलज़ार अपना सूफियाना रंग लिए लोगों की साँसों में बसते हैं। आज गुलज़ार साहब का 77 वां जन्मदिन है। जन्मदिन के बहाने आकाश की तस्वीर को एक छोटे से केनवास पर उतारने का मेरा बचपना प्रयास। एक समंदर सी अथाह गहरी ज़िन्दगी की कुछ बूंदे जो मुझ पर लहरों के साथ सौभाग्य से पड़ गयीं ,उन्हीं चंद एहसासों को शब्द देने की कोशिश की है। गुलज़ार साहब को मैंने पहली बार जब उनके कहानी संकलन 'रवीपार" में पढ़ा तो एक अजीब सी  धुन लग  गयी। और फिर नज्मे, ग़ज़लें, कवितायेँ ,फिल्मों की पटकथा ,जो भी जहाँ से संभव हो सका बहुत ह्रदय से पढ़ा।  
                  गुलज़ार का पूरा नाम सम्पूर्ण  सिंह कालरा है। गुलज़ार का जन्म अविभाजित भारत के झेलम  जिला के दीना गाँव में, जो अब पाकिस्तान  में है, १८ अगस्त १९३६ को हुआ था। गुलज़ार अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान हैं। उनकी माँ उन्हें बचपन मे ही छोङ कर चल बसीं। माँ के आँचल की छाँव और पिता का दुलार भी नहीं मिला।  वह नौ भाई-बहन में चौथे नंबर पर थे। बंट्वारे के बाद उनका परिवार अमृतसर  आकर बस गया, वहीं गुलज़ार साहब मुंबई चले गये।
       अपने संघर्ष के दिनों में एक मोटर गैराज में काम करने से लेकर हिंदी सिनेमा के दिग्गज निर्देशकों के साथ काम करने तक के सफ़र में गुलज़ार  साहब ने ज़िन्दगी  करीब से देखा है,,,,
  "अपने ही साँसों का कैदी
रेशम का यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगा""
जैसे जैसे हम इन नज्मों की परतों को एक एक कर अलग अलग करते हैं वैसे वैसे इस शायर का जीवन के गहनतम स्टार तक पहुंचा हुआ ऐसा अवसादी मन जज़्बात के साथ खिलाता है। ….
 एक अकेला इस शहर में……
जीने की वजह तो कोई नही
मरने का बहाना ढूंढता  है….
एक और खास चीज है, जो इस शायर की कविता का पर्याय बन गयी है। ये गुलज़ार ही है, जिनकी कविताओं में प्रकृति कितनी खूबसूरती से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है.गुलज़ार की कविताओं में प्राकृतिक प्रतीकों की भरमार रही है चाहे वह चाँद की उपस्थिति रही हो या फिर सूरज तारे बारिश पतझड़ दिन रात शाम नदी बर्फ समुद्र धुंध हवा कुछ भी हो सकती है जो अपनी खूबसूरती गुलज़ार की कविताओं में बिखेरते हैं।

बेसबब मुस्कुरा रहा है चाँद,
कोई साजिश छुपा रहा है चाँद … "
            "फूलों की तरह लैब खोल कभी
               खुशबू की जबान में बोल कभी "
 
                                "हवा के सींग न पकड़ो, खदेड़ देती हैं
                               जमीन से पेड़ों के टाँके उधेड़ देती हैं …"
और भी ढेरों खूबसूरत नज्में आपके दिल को गुनागुनायेंगी।
      
 गुलज़ार साहब राखी के साथ प्रेम बंधनों में बंधे,और एक पति और पिता के रिश्तों में घुल गए। लेकिन ये रिश्ता ज्यादा दिनों तक चल नही सका और आपसी मतभेद के बाद दोनों अलग अलग रहते है मगर अभी तलाक़ नहीं हुआ है। बचपन में माँ के गुजर जाने के बाद जीवनसाथी  के विरह तक गलज़ार ने  रिश्तों की मार्मिकता देखी  है और इसीलिए उन्होंने अपनी  नज्मों में रिश्तों की मासूमियत को अद्भुत तरीके से व्यक्त किया है
"हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख से लम्हे नहीं जोड़ा करते। " 
                या फिर ….
"मुझको भी तरकीब सिखा कोई, यार जुलाहे……
मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें साफ़ नज़र आती हैं, मेरे यार जुलाहे"
और आख़िरकार वे कहते हैं। 
        "आओ ! सारे पहन लें आईने 
सारे देखेंगे अपने ही चेहरे……
प्रेम में उस अनसुनी आवाज़ को, जो बोलना नहीं जानती गुलज़ार बखूबी सुन पाए हैं। "सांस में तेरी सांस मिली तो मुझे सांस आयी….
जीवन की वास्तविकताओं से गुजरते हुए  संघर्ष के क्षण गुलज़ार की कविताओं में ज़िन्दगी की रूमानियत के साथ म्रत्यु जैसे शांत पद में भी संवेदनाएं भर गए हैं।
  क्या पता कब, खान मारेगी
बस, की मैं ज़िन्दगी से डरता हूँ
मौत का क्या है, एक बार मारेगी।  
गुलज़ार हमेशा समय के साथ लिखते रहे हैं। …वे कहते हैं
"चाँद जितनी शक्लें  बदलेगा, मैं भी उतना ही बदल बदल कर लिखता रहूँगा। ……. " 

बुधवार, 12 जून 2013

आखिर मुरझा गया,
                              वो कोमल पौधा..
जिसे सूरज ने अपनी तपिश से महरूम रखा..
हवा के  तेज रुख ने ,
                            उसकी अनिर्मित जड़ें झकझोर दीं.
और जलाशय के किनारे खड़ा-खड़ा सुख गया..

 
                     
 आज उसने दम तोड़ दिया..

मगर,      सूखने से पहले,   मुरझाते-मुरझाते
            घुटता रहा वो....   जीने की कश्मकश में
           लड़ता रहा.....   अर्जित करने को - हवा, धूप और पानी.
           उसकी आख़िरी सांस में उम्मीद बह गयी......