मनरेगा के तहत कुल कामगारों में 57 प्रतिशत महिलाएं हैं. मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ना एक शुभ सूचक है. गाँव में महिलाएं घरेलू कामकाज के साथ-साथ खेतीवाडी के काम में भी हाथ बंटाती हैं लेकिन उनके काम को कभी भी आय का स्रोत नहीं माना जाता. ऐसे में मनरेगा की कमाई पर उनका अधिकार होगा और वे आत्मनिर्भर बनेंगीं.
कई घरों में जहाँ पुरुष नहीं है और महिलाएं ही घर चलाती हैं. ऐसे में वे बाहर कमाने के लिए नहीं जा सकतीं तो गाँव में ही दूसरे खेतों में अनाज बीनकर या जंगलों से लकडियाँ तोडकर गुजारा करती हैं. अब उन्हें सौ दिन का रोजगार मिलने से आसानी से घर चला सकती हैं. गाँवों में कुएं की खुदाई से काम की समस्या तो दूर हुई ही साथ ही महिलाओं को दूर-दराज से पानी लाने से भी राहत मिली है. मनरेगा से गाँवों में सडक, नालियां, नलकूप और तालाब के निर्माण से सुविधाएँ तो बढ़ी ही हैं साथ ही रोजगार भी मिला है.
खेती में सूखे की मार से किसान मजदूरी के लिए शहरों को पलायन करते हैं. एक बार शहर में काम मिलने के बाद वे वापस गाँव मे लौटकर खेतीवाडी का जोखिम नहीं लेना चाहते और इस तरह किसान कृषि से शहरों में मजदूर बन रहे हैं. मनरेगा ने पलायन को मजबूर किसानों को गाँव में ही काम देकर उन्हें कृषि से जोड़े रखा है. वे गाँव में ही रहकर काम करते हैं और फसल के समय आसानी से खेती भी कर सकते हैं.
सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी से पता चला है कि राज्यों से सैकड़ों शिकायतें दर्ज की गयीं. काम करने वालों को समय पर पैसे नहीं मिलने से लेकर ग्राम प्रधान की हेराफेरी और भाई-भतीजावाद जैसी चुनौतियों से निपटना होगा. जरुरत है कि इसकी खामियों को दूर कर इसका असली मकसद हासिल किया जाए. तमाम शिकायतों के बाद भी यह योजना ग्रामीण इलाकों की तस्वीर बदलने में सक्षम है
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