गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

"मंजूरी या मजबूरी"

दिल्ली सरकार ने ऑड-ईविन स्कीम को पुनः लागू करने के लिए जनता से सुझाव मांगे थे. जो उनके पक्ष में आये और अब सरकार जल्द ही इसके लागू होने की तारीखें घोषित करने वाली है. असल में ये स्कीम लोगों की मंजूरी से ज्यादा मजबूरी बन गयी है. इसे मानने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचा है. पंद्रह दिनों तक सपाट सड़कों पर दौड़ने वाले फिर से घंटों जाम में फंसे स्कीम की मांग करने ही लगते हैं. लेकिन गौर करिये, तो क्या यह स्कीम अपने निर्धारित लक्ष्यों को हासिल कर पायी है. प्रदूषण कम करने की मुहिम का हासिल कुछ और ही निकला। ऑड-ईविन स्कीम के दौरान प्रदूषण की बजाय ट्रैफिक कंट्रोल अच्छा हुआ । एक हालिया सर्वे में लोगों ने माना भी कि स्कीम के दौरान पंद्रह दिनों में ट्रैफिक कम हुआ था और जाम की समस्या से निजात मिल गयी थी. इससे समय और ईधन दोनों की बचत होती है. कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि कुछ रूटों पर सफर का समय आधे से भी कम हो गया. ऐसा कई सालों में पहली बार हुआ था जब सड़कें सपाट नजर आईं.
मगर प्रदूषण नियंत्रण रिपोर्टों को देखें तो पता चलता है कि प्रदूषण का स्तर ज्यादा कम नहीं हुआ है. ये स्कीम अगर दुबारा लाई जा रही है तो प्रदूषण रोकने की बात कहना बेमानी होगा। लोग समर्थन में हैं तो सिर्फ इसलिए कि उन्हें ट्रैफिक में राहत नजर आ रही है. लेकिन प्रदूषण कम करने का सवाल अभी भी बेहतर योजना की बाट जोह रहा है. कहीं हम ऑड-ईविन के भ्रम में ही इस खतरनाक सवाल से भटका न दिए जाएँ।

यह लेख हिन्दुस्तान और दैनिक ट्रिब्यून में 11 फरवरी 2016 को प्रकाशित हुआ है.

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