संसद का बजट सत्र शुरू होने वाला है. उम्मीद तो कम ही है मगर फिर भी सरकार को इसे गंभीरता से लेन चाहिए वर्ना हंगामे की भेंट चढ़ा ये लगातार तीसरा सत्र होगा। विपक्ष बिलों को आगामी विधानसभा चुनावों का मुद्दा बनाकर सरकार को घेरने की पूरी कोशिश में रहेगी। लेकिन सरकार अब विपक्ष पर संसद न चलने देने का आरोप डालकर पल्ला नहीं झाड़ सकती। जैसा कि हालिया प्रधानमंत्री ने असम में आयोजित एक रैली में इशारा भी किया।
पिछले मानसून और शीतकालीन दोनों सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गए और दोनों सत्रों में जीएसटी समेत कई अहम बिल राजनीतिक विरोध और हंगामे की वजह से अटके रह गए. संसद जनहित नीतियां निर्धारित करने की बजाय राजनीतिक अखाडा बन गयी है. पिछले सत्रों में लोकसभा की बजाय राजयसभा में ज्यादा समय की बर्बादी हुई थी, जहां विपक्ष बहुमत में है. विपक्ष अपनी भूमिका निभाए मगर संसद की कार्रवाही में बाधा डालकर कोन सी जिम्मेदारी पूरी हो रही है. बिलों पर सार्थक बहस हो और समाधान खोजे जाएँ न कि मर्यादाएं ताक पर रखकर सिर्फ संसद ठप कराने की रणनीति अब जनता भी समझने लगी है. बातचीत से हल निकाले जाएँ और स्पष्ट संवाद से मतभेद दूर कर पक्ष-विपक्ष मिलकर अपनी जबाबदेही तय करें। हंगामे खड़े कर किसी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं होता, बल्कि इसके उलट जनता के खून पसीने की कमाई और समय की बर्बादी ही होती है। करदाताओं के पैसे से चल रही संसद में सिर्फ छींटाकसी कहाँ तक ठीक है. इस बजट सत्र में उम्मीद है कि पुराने अटके पड़े बिल पास होंगे और नए मुद्दों पर चर्चा का वातावरण बनेगा।
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