गुरुवार, 3 मार्च 2016

मेरे गाँव के मुकाम

भोर के सपने

ग्रामीण भारत में देश की साठ फीसदी जनता रहती है. उनका लक्ष्य महज दो जून की रोटी कमाने के लिए जीवन भर संघर्ष करना रहता है.
गाँवों में इतनी जटिलताएं हैं कि उनमें उलझने से लेकर आपसी समझ बनने तक जीवन गुजर जाता है और नई पीढ़ी पनपने लगती है.
पुरुष कमाने के लिए बाहर निकलते हैं और कुछ समय में कमाकर लौटते हैं और उसे कुछ महीने में खर्च कर लेते हैं. फिर कमाने के लिए घर छोड़ते हैं और ये चक्र जीवन भर चलता रहता है.
महिलाओं की जिम्मेदारी सिर्फ घर सँभालने और भीतर बंद रहने की ही होती है, उन्हें कमाने लायक नहीं समझा जाता. उसके दो तर्क दिए जाते हैं- पहला तो ये कि उनमें सामर्थ्य नहीं है और दूसरा कि इसमें समाज की इज्जत चली जाती है.

इन दोनों तर्कों के अलावा भी जबरदस्ती उनकी पहलों को दबा दिया जाता है. नब्बे फीसदी हिस्सा तो पहले से ही जनता है कि उन्हें काम करने ही नहीं दिया जायेगा तो वे इस बारे में सोचती ही नहीं हैं. बाकी जो दस प्रतिशत आवाज़ भी उठाती हैं उन्हें तिरष्कृत कर दिया जाता है.
मैं ग्रामीण ऊर्जा को सही दिशा में लगाना चाहता हूँ. ये काम क्रांति से नहीं होगा. समाज के खिलाफ जाकर आप बदलाव नहीं कर सकते फिर आप मजह समाज से ही लड़ते रह जायेंगे.
इन्हें घर पर ही काम मुहैया करा के धीरे धीरे मुख्य धारा में लाया जायेगा. कुछ ऐसे काम जिनमे उनका समय भी सुविधानुसार हो और आमदनी भी हो.
गाँव में युवा जो पढाई के नाम पे या कम उम्र होने के कारण खेलों के साथ साथ भटकने की राह पर होते हैं. उनके लिए ऐसा काम जो घंटे दो घंटे करने से जेब खर्च निकल आये और कुछ स्किल भी सीख जाएँ.
इस काम को गाँव के पास किसी फेक्ट्री में लगाया जाए. उसका कच्चा माल भी वहीं हो. व्यापारी बाजार से लगातार संपर्क में हों.
महिलाएं जो घर का काम करके दिन में कुछ घंटों के लिए फुर्सत में होती हैं उन्हने इस काम मे शामिल किया जा सकता है.

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